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पातालखण्ड]
. भगवडक्तिके लक्षण तथा वैशाख-स्त्रानकी महिमा •
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उनके हाथोंमे वरद एवं अभयकी मुद्राएँ हैं। वे पीत वस्त्र भक्तिके द्वारा ही प्राप्त करते हैं, इस बातको तुम भी जानते धारण किये हुए है तथा उनके नेत्र अत्यन्त सुन्दर हैं। वे हो । राजन् ! धर्मका कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो तुम्हें प्रसन्नतासे परिपूर्ण दिखायी देते हैं। राजन् ! इस प्रकार ज्ञात न हो। फिर भी जिनके चरण ही तीर्थ हैं, उन योगयुक्त पुरुष अपने हृदयमें परमेश्वरका ध्यान करता है। भगवान्की चर्चा का प्रसङ्ग उठाकर जो तुम उनकी सरस
जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठको भस्म कर डालती है, कथाको मुझसे विस्तारके साथ पूछ रहे हो-उसमें यही उसी प्रकार भगवान्की भक्ति मनुष्यके पापोंको तत्काल कारण है कि तुम वैष्णवोंका गौरव बढ़ाना चाहते होदग्ध कर देती है। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्ति साक्षात् मुझ-जैसे लोगोंको आदर दे रहे हो। साधु-संत जो सुधाका रस है, सम्पूर्ण रसोका एकमात्र सार है। इस एक-दूसरेसे मिलनेपर अधिक श्रद्धाके साथ भगवान् पृथ्वीपर मनुष्य जबतक उस भक्तिका श्रवण नहीं अनन्तके कल्याणमय गुणोंका कीर्तन और श्रवण करते करता-उसका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे सैकड़ों हैं, इससे बढ़कर परम संतोषकी बात तथा समुचित पुण्य बार जन्म, मृत्यु और जराके आघातसे होनेवाले नाना मुझे और किसी कार्यमें नहीं दिखायी देता । ब्राह्मण, गौ, प्रकारके दैहिक दुःख प्राप्त होते हैं। यदि महान् सत्य, श्रद्धा, यज्ञ, तपस्या, श्रुति, स्मृति, दया, दीक्षा और प्रभावशाली भगवान् अनन्तका कीर्तन और स्मरण किया संतोष-ये सब श्रीहरिके स्वरूप हैं। सूर्य, चन्द्रमा, जाय तो वे समस्त पापोंका नाश कर देते हैं, ठीक उसी वायु, पृथ्वी, जल, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तरह, जैसे वायु मेघका तथा सूर्यदेव अन्धकारका विनाश तथा सम्पूर्ण प्राणी उस परमेश्वरके ही स्वरूप हैं। इस कर डालते हैं। राजन् ! देवपूजा, यज्ञ, तीर्थ-सान, चराचर जगत्को उत्पत्र करनेकी शक्ति रखनेवाले वे व्रतानुष्ठान, तपस्या और नाना प्रकारके कर्मोसे भी विश्वरूप भगवान् स्वयं ही ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके अन्तःकरणकी वैसी शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् सदा उन्हें खिलाया जानेवाला अन्न भोजन करते हैं। अनन्तका ध्यान करनेसे होती है।* नरनाथ ! जिनमें इसलिये जिनकी चरण-रेणु तीर्थक समान है, भगवान् पवित्र यशवाले तथा अपने भक्तोंको भक्ति प्रदान अनन्त ही जिनके आधार हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके करनेवाले विशुद्धस्वरूप भगवान् श्रीविष्णुका कीर्तन आत्मा तथा पुण्यमयी लक्ष्मीके सर्वस्व हैं, उन होता है, वे ही कथाएँ शुद्ध है तथा वे ही यथार्थ, वे ही ब्राह्मणोका आदरपूर्वक पूजन करो । जो विद्वान् ब्राह्मणको लाभ पहुँचानेवाली और वे ही हरिभक्तोंके कहने-सुनने विष्णुबुद्धिसे देखता है, वही सच्चा वैष्णव है तथा वही योग्य होती है। भूमण्डलके राज्यका भार सम्हालनेवाले अपने धर्ममें भलीभांति स्थित माना जाता है। तुमने धीरचित्त महाराज अम्बरीष ! तुम धन्य हो; क्योंकि भक्तिके लक्षण सुननेके लिये प्रार्थना की थी, सो सब तुम्हारा हृदय पुरुषोत्तमके ध्यानमें एकतान हो रहा है तथा मैंने तुम्हें सुना दिया। अब गङ्गा-नान करनेके लिये जा सौभाग्यलक्ष्मीसे सुशोभित होनेवाली तुम्हारी नैष्ठिक रहा हूँ। बुद्धि श्रीकृष्णचन्द्रकी पुण्यमयी लीलाओंके श्रवणमें 'यह वैशाखका महीना उपस्थित है, जो भगवान् प्रवृत्त हो रही है। भूपते ! भक्तोंको वरदान देनेवाले लक्ष्मीपतिको अत्यन्त प्रिय है। इसकी भी आज शुक्ला अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुको भक्तिपूर्वक आराधना सप्तमी है; इसमें गङ्गाका स्नान अत्यन्त दुर्लभ है। किये बिना अहङ्कारवश अपनेको ही बड़ा माननेवाले पूर्वकालमें राजा जड्ने वैशाख शुक्ला सप्तमीको क्रोध पुरुषका कल्याण कैसे होगा। भगवान् मायाके जन्मदाता आकर गङ्गाजीको पी लिया था और फिर अपने दाहिने हैं, उनपर मायाका प्रभाव नहीं पड़ता। साधु पुरुष उन्हें कानके छिद्रसे उन्हें बाहर निकाला था; अतः जझुकी
___ * न भूप देवार्चनयज्ञतीर्थमानवताचारक्रियातपोभिः । तथा विशुद्धि लभतेऽन्तरात्मा यथा हदिस्थे भगवल्पनने ।। (८५। २८)