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पातालखण्ड]
. दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुटको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति .
यहाँतक मैंने शरणागतोके बाह्य धर्मोका संक्षेपसे प्रणाम करके लक्ष्मीपतिसे कहा-'कृपासिन्धो ! आपका वर्णन किया है। अब उनके अत्यन्त उत्कृष्ट आन्तरिक धर्मका परिचय दिया जाता है। अन्तरङ्ग भक्तको यत्नपूर्वक कृष्णप्रिया श्रीराधाके सखीभावका आश्रय लेकर निरन्तर उन दोनोंकी सेवा करनी चाहिये तथा आलस्यको अपने पास फटकने नहीं देना चाहिये । मन्त्र और उसके अङ्गोंका पहले वर्णन किया जा चुका है। उसके अधिकारी, अधिकारियोंके धर्म तथा उन्हें मिलनेवाले फलका भी प्रतिपादन किया गया है। नारद ! तुम भी इस साधनाका अनुष्ठान करो; तुम्हें श्रीराधा और श्रीकृष्णके दास्य भावकी प्राप्ति अवश्य होगी-इसमें कोई संदेह नहीं है। जो एक बार भी शरणमें जा 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर याचना करता है, उसे भगवान् अवश्य ही अपना दासत्व प्रदान करते है। मेरे मनमें इसके लिये अन्यथा विचार करनेकी गुंजाइश नहीं है ।* मुनिवर ! यह मैंने तुमसे शरणागत भक्तके आन्तरिक धर्मका वर्णन किया है। यह गुह्यसे भी बढ़कर अत्यन्त गुह्यतम विषय है, इसलिये इसे जो रूप परम आनन्ददायक, सम्पूर्ण आनन्दोंका आश्रय, प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये-सर्वत्र प्रकाशित नहीं नित्य, मनोहर मूर्तिधारी, सबसे श्रेष्ठ निर्गुण, निष्क्रिय और करना चाहिये।
शान्त है, जिसे विद्वान् पुरुष ब्रह्म कहते हैं, उसको मैं इस प्रसङ्गमे मैं तुम्हे अत्यन्त अद्भुत रहस्यकी बात अपने नेत्रोंसे देखना चाहता हूँ।' यह सुनकर भगवान् बतलाता हूँ, जिसे मैंने साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके कमलापतिने मुझ शरणागत भक्तसे कहा-'महादेव ! मुखसे सुना था। पूर्वकालकी बात है, मैं कैलाश पर्वतके तुम्हारे मनमें मेरे जिस रूपको देखनेकी इच्छा है, उसका शिखरपर एक सघन वनमें रहता था और यहाँ भगवान् अभी दर्शन करोगे। यमुनाके पश्चिम तटपर मेरा श्रीनारायणका ध्यान करते हुए उनके श्रेष्ठ मन्त्रका जप लोला-धाम वृन्दावन है वहीं चले जाओ। यो कहकर वे करता था। इससे संतुष्ट होकर भगवान् मेरे सामने जगदीश्वर अपनी प्रियाके साथ अन्तर्धान हो गये। तब मैं प्रकट हुए और बोले-'वर माँगो।' उनके यों कहनेपर भी यमुनाके सुन्दर तटपर चला आया। वहाँ मुझे सम्पूर्ण मैंने आँखें खोलकर देखा, भगवान् अपनी प्रिया देवेश्वरोके भी ईश्वर श्रीकृष्णका दर्शन हुआ, जो श्रीलक्ष्मीजीके साथ गरुड़पर विराजमान थे। मैने बारम्बार किशोरावस्थासे युक्त, कमनीय गोपवेष धारण किये,
अहमस्म्यपराधानामालयस्त्यक्तसाधनः ।अगतिक ततो नायौं भवन्तावेव में गतिः ।। तवास्मि राधिकानाथ कर्मणा मनसा गिरा । कृष्णकान्ते तवैवास्मि युवामेव गतिर्मम ॥ शरण वो प्रपत्रोऽस्मि करुणानिकराकरौ । प्रसाद कुरुतं दास्यं मयि दुष्टेऽपराधिनि ॥ इत्येवं अपता नित्यं स्थातव्यं पदपङ्कजम् । अचिरादेव तद्दास्यमिच्छता मुनिसत्तम । (८२ । ४२-४७) * सकपात्रप्रपत्राय तवास्मीत्यभियाचते । निजदास्य हरिदयान मेऽनास्ति विचारणा ॥ (८२ ॥ ५२)