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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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अपनी प्रियाके कंधेपर बायाँ हाथ रखकर खड़े थे। अंशसे सर्वत्र व्यापक हूँ। इससे विद्वान् लोग मुझे उनकी वह झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती थी। चारों 'ब्रह्म'के नामसे पुकारते हैं। मैं इस प्रपञ्चका कर्ता नहीं हूँ, ओरसे गोपियोंका समुदाय था और बीचमें भगवान् खड़े इसलिये शास्त्र मुझे निष्क्रिय बताते हैं। शिव ! मेरे अंश
ही मायामय गुणोंके द्वारा सृष्टि आदि कार्य करते हैं। मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता । महादेव ! मैं तो इन गोपियोंके प्रेम में विह्वल होकर न तो दूसरी कोई क्रिया जानता हूँ और न मुझे अपने-आपका ही भान रहता है। ये मेरी प्रिया श्रीराधिका हैं, इन्हें परा देवता समझो। मैं इनके प्रेमके वशीभूत होकर सदा इन्हीके साथ विचरण करता हूँ। इनके पीछे और अगल-बगलमें जो लाखों सखियाँ है, ये सब-की-सब नित्य हैं। जैसे मेरा विग्रह नित्य है, वैसे ही इनका भी है। मेरे सखा, पिता, गोप, गौएँ तथा वृन्दावन-ये सब नित्य हैं। इन सबका स्वरूप चिदानन्दरसमय ही है। मेरे इस वृन्दावनका नाम
आनन्दकन्द समझो। इसमें प्रवेश करने मात्रसे मनुष्यको पुनः संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता । मैं वृन्दावन छोड़कर कहीं नहीं जाता। अपनी इस प्रियाके साथ सदा यहीं
निवास करता हूँ। रुद्र ! तुम्हारे मनमें जिस-जिस बातको
_. ..] जाननेकी इच्छा थी, वह सब मैंने बता दिया। बोलो, इस होकर श्रीराधिकाजीको हँसाते हुए स्वयं ही हँस रहे थे। समय मुझसे और क्या सुनना चाहते हो?' उनका श्रीविग्रह सजल मेघके समान श्यामवर्ण तथा मुनिश्रेष्ठ नारद ! तब मैंने भगवान्से कहाकल्याणमय गुणोंका धाम था। श्रीकृष्ण मुझे देखकर 'प्रभो ! आपके इस स्वरूपकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? हैंसे । उनकी वाणीमें अमृत भरा था। वे मुझसे बोले- इसका उपाय मुझे बताइये।' भगवान्ने कहा-'रुद्र ! 'रुद्र ! तुम्हारा मनोरथ जानकर आज मैंने तुम्हें दर्शन तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है; किन्तु यह विषय अत्यन्त दिया। इस समय मेरे जिस अलौकिक रूपको तुम देख रहस्यका है, इसलिये इसे यत्रपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। रहे हो, यह निर्मल प्रेमका पुञ्ज है । इसके रूपमें सत्, चित् देवेश्वर ! जो दूसरे उपायोंका भरोसा छोड़कर एक बार हम
और आनन्द ही मूर्तिमान् हुए है। उपनिषदोंके समूह मेरे दोनोंकी शरणमें आ जाता है और गोपीभावसे मेरी इसी स्वरूपको निराकार, निर्गुण, व्यापक, निष्क्रिय और उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है। जो एक बार परात्पर बतलाते हैं। मेरे दिव्य गुणोंका अन्त नहीं है तथा हम दोनोंकी शरणमें आ जाता है अथवा अकेली मेरी इस उन गुणोंको कोई सिद्ध नहीं कर सकता; इसीलिये वेदान्त प्रियाको ही अनन्यभावसे उपासना करता है, वह मुझे शास्त्र मुझ ईश्वरको निर्गुण बतलाता है। महेश्वर ! मेरा यह अवश्य प्राप्त होता है। जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं रूप चर्मचक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता; अतः सम्पूर्ण वेद आपका हैं' ऐसा कह देता है, वह साधनके बिना भी मुझे मुझे अरूप-निराकार कहते हैं। मैं अपने चैतन्य- प्राप्त कर लेता है-इसमें संशय नहीं है। इसलिये
* सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति वदेदपि । साधनेन विनाप्येव मामानोति न संशयः ।। (८२ । ८५)