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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
हृदय जो बात रहती है, वह उसकी वाणीमें निस्सन्देह उज्ज्वल हैं तथा हमारे सम्पूर्ण कर्म भी उज्ज्वल हैं। इस व्यक्त हो जाती है [श्रीरघुनाथजीने कहा है-] पृथ्वीपर जो हम दोनोंकी कौर्तिका गान करनेवाले पुरुष 'सतीशिरोमणि सीते! लोग मुझे ही सबके ईश्वरका है, वे भी उज्ज्वल रहेंगे। जो हम दोनोंके प्रति भक्ति भी ईश्वर कहते हैं; किन्तु मैं कहता हैं, जगत्में जो रखते हैं, वे संसार-सागरसे पार हो जायेंगे।' इस प्रकार कुछ हो रहा है, इसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट (प्रारब्ध) आपके गुणोंसे प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीने यह संदेश ही है। जो सबका ईश्वर है, वह भी प्रत्येक कार्यमें दिया है; अतः अब आप अपने पतिदेवके चरणअदृष्टका ही अनुसरण करता है। मेरे धनुष तोड़नेमें, कमलोंका दर्शन करनेके लिये अपने मनको उनके प्रति कैकेयीकी बुद्धि भ्रष्ट होनेमें, पिताकी मृत्युमें, मेरे वन सदय बनाइये। महारानी ! आपके दोनों कुमार हाथीपर जानेमें, वहाँ तुम्हारा हरण होनेमें, समुद्रके पार जानेमें, बैठकर आगे-आगे चलें, आप शिविकामें आरूढ़ होकर राक्षसराज रावणके मारनेमें, प्रत्येक युद्धके अवसरपर मध्यमें रहे और मैं आपके पीछे-पीछे चलें। इस तरह वानर, भालू और राक्षसोंकी सहायता मिलने में, तुम्हारी आप अपनी पुरी अयोध्यामें पधारें। वहाँ चलकर जव प्राप्तिमें, मेरी प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेमें, पुनः अपने बन्धुओंके आप अपने प्रियतम श्रीरामसे मिलेंगी, उस समय साथ संयोग होनेमें, राज्यकी प्राप्तिमें तथा फिर मुझसे यज्ञशालामें सब ओरसे आयी हुई सम्पूर्ण राजमेरी प्रियाका वियोग होने में एकमात्र अदृष्ट ही अनिवार्य महिलाओंको, समस्त ऋषि-पत्नियोंको तथा माता कारण है। देवि ! आज वही अदृष्ट फिर हम दोनोंका कौसल्याको भी बड़ा आनन्द होगा। नाना प्रकारके संयोग करानेके लिये प्रसन्न हो रहा है। ज्ञानीलोग भी बाजे बजेंगे, मङ्गलगान होंगे तथा अन्य ऐसे ही अदृष्टका हो अनुसरण करते हैं। उस अदृष्टका भोगसे समारोहोंके द्वारा आज आपके शुभागमनका महान् ही क्षय होता है; अतः तुमने वनमें रहकर उसका भोग उत्सव मनाया जायगा। पूरा कर लिया है। सीते ! तुम्हारे प्रति जो मेरा अकृत्रिम शेषजी कहते हैं-मुने! यह सन्देश सुनकर स्रेह है, वह निरन्तर बढ़ता रहता है, आज वही स्नेह महारानी सीताने कहा-'लक्ष्मण ! मैं धर्म, अर्थ और निन्दा करनेवाले लोगोंकी उपेक्षा करके तुम्हें आदरपूर्वक कामसे शून्य हूँ। भला मेरे द्वारा महाराजका कौन-सा बुला रहा है। दोषको आशङ्का-मात्रसे भी स्रेहकी कार्य सिद्ध होगा? पाणिग्रहणके समय जो उनका निर्मलता नष्ट हो जाती है। इसलिये विद्वानोंको [दोषके मनोहर रूप मेरे हृदयमें बस गया, वह कभी अलग नहीं मार्जनद्वारा] स्नेहको शुद्ध करके ही उसका आस्वादन होता। ये दोनों कुमार उन्हींके तेजसे प्रकट हुए हैं। ये करना चाहिये। कल्याणी ! [तुम्हें वनमें भेजकर] मैंने वंशके अङ्कर और महान् वीर है। इन्होंने धनुर्विद्यामे तुम्हारे प्रति अपने स्नेहकी शुद्धि ही की है; अतः तुम्हें विशिष्ट योग्यता प्राप्त की है। इन्हें पिताके समीप ले इस विषयमें कुछ अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। जाकर यत्नपूर्वक इनका लालन-पालन करना । मैं तो [मैंने तुम्हारा त्याग किया है-ऐसा नहीं मानना अब यहीं रहकर तपस्याके द्वारा अपनी इच्छाके अनुसार चाहिये] । शिष्ट पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करके मैंने श्रीरघुनाथजीकी आराधना करूंगी। महाभाग ! तुम वहाँ निन्दा करनेवाले लोगोंकी भी रक्षा ही की है। देवि ! जाकर सभी पूज्यजनोंके चरणोंमें मेरा प्रणाम कहना हम दोनोंकी जो निन्दा की गयी है, इससे हमारी तो और सबसे कुशल बताकर मेरी ओरसे भी सबकी प्रत्येक अवस्थामें शुद्धि ही होगी; किन्तु ये मूर्खलोग जो कुशल पूछना।' महापुरुषोंके चरित्रको लेकर निन्दा करते हैं; इससे वे इसके बाद सीताने अपने दोनों बालकोंको आदेश स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। हम दोनोंको कीर्ति उज्ज्वल है, दिया-'पुत्रो ! अब तुम अपने पिताके पास जाओ। हम दोनोंका नेह-रस उज्ज्वल है, हमलोगोंके वंश उनकी सेवा-शुश्रूषा करना। वे तुम दोनोंको अपना पद