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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण
श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
पार्वती बोलीं-दयानिधे! अब, भगवान् उम्र) वाली हैं। उन सबको कान्ति उज्ज्वल है। वे श्रीकृष्णके जो पार्षद हैं, उनका वर्णन सुननेकी इच्छा हो सब-की-सब श्याममय अमृतरसमें निमग्न रहती हैं। रही है; अतः बतलाइये।
उनके हृदयमे श्रीकृष्णके ही भाव स्फुरित होते हैं। वे महादेवजीने कहा-देवि! भगवान् श्रीकृष्ण अपने कमलवत् नेत्रोंके द्वारा पूजित श्रीकृष्णके श्रीराधाके साथ सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हैं। चरणारविन्दोंमें अपना-अपना चित्त समर्पित कर उनका रूप और लावण्य वैसा ही है, जैसा कि पहले चुकी हैं। बताया गया है। वे दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण और श्रीराधा और चन्द्रावलीके दक्षिण भागमें श्रुतिदिव्य हारसे विभूषित हैं। उनकी त्रिभङ्गी छबि बड़ी कन्याएँ रहती हैं [वेदकी श्रुतियाँ ही इन कन्याओंके मनोहर जान पड़ती है। उनका स्वरूप अत्यन्त स्निग्ध है। रूपमें प्रकट हुई हैं] इनकी संख्या सहस्र अयुत (एक वे गोपियोंकी आँखोके तारे हैं। उपर्युक्त सिंहासनसे करोड़) है। इनकी मनोहर आकृति संसारको मोहित कर पृथक् एक योगपीठ है। वह भी सोनेके सिंहासनसे लेनेवाली है। इनके हृदयमें केवल श्रीकृष्णको लालसा आवृत है। उसके ऊपर ललिता आदि प्रधान-प्रधान है। ये नाना प्रकारके मधुर स्वर और आलाप आदिके सखियाँ, जो श्रीकृष्णको बहुत ही प्रिय हैं, विराजमान द्वारा त्रिभुवनको मुग्ध करनेकी शक्ति रखती हैं तथा प्रेमसे होती हैं। उनका प्रत्येक अङ्ग भगवन्पिलनको उत्कण्ठा विहल होकर श्रीकृष्णके गूढ़ रहस्योंका गान किया करती तथा रसावेशसे युक्त होता है। ये ललिता आदि सखियाँ हैं। इसी प्रकार श्रीराधा आदिके वामभागमें दिव्यवेषप्रकृतिको अंशभूता है। श्रीराधिका ही इनकी मूलप्रकृति धारिणी देवकन्याएं रहती हैं, जो रसातिरेकके कारण है। श्रीराधा और श्रीकृष्ण पश्चिमाभिमुख विराजमान हैं, अत्यन्त उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। वे भाँति-भाँतिको उनकी पश्चिम दिशामें ललितादेवी विद्यमान है, प्रणयचातुरीमे निपुण तथा दिव्य भावसे परिपूर्ण हैं। वायव्यकोणमें श्यामला नामवाली सखी हैं। उत्तरमें उनका सौन्दर्य चरम सीमाको पहुँचा हुआ है। वे श्रीमती धन्या है। ईशानकोणमें श्रीहरिप्रियाजी विराज रही कटाक्षपूर्ण चितवनके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ती हैं। पूर्वमें विशाखा, अग्निकोणमें शैव्या, दक्षिणमें पद्मा हैं। उनके मनमें श्रीकृष्णके प्रति तनिक भी संकोच नहीं तथा नैत्यकोणमें भद्रा हैं। इसी क्रमसे ये आठों है; उनके अङ्गोंका स्पर्श प्राप्त करनेके लिये सदा सखियाँ योगपीठपर. विराजमान हैं। योगपीठको उत्कण्ठित रहती है। उनका हृदय निरन्तर श्रीकृष्णके ही कर्णिकामें परमसुन्दरी चन्द्रावलीकी स्थिति है-वे भी चिन्तनमें मग्न रहता है। वे भगवान्की ओर मंद-मंद श्रीकृष्णकी प्रिया हैं। उपर्युक्त आठ सखियाँ श्रीकृष्णको मुसकाती हुई तिरछी चितवनर्स निहारा करती है। प्रिय लगनेवाली परमपवित्र आठ प्रधान प्रकृतियाँ हैं। तदनन्तर, मन्दिरके बाहर गोपगण स्थित होते है, वे वृन्दावनकी अधीश्वरी श्रीराधा तथा चन्द्रावली दोनों ही भगवान्के प्रिय सखा है, उन सबके वेष, अवस्था, बल, भगवान्की प्रियतमा है। इन दोनोंके आगे चलनेवाली पौरुष, गुण, कर्म तथा वस्त्राभूषण आदि एक समान है। हजारों गोपकन्याएँ हैं, जो गुण, लावण्य और सौन्दर्यमें वे एक समान स्वरसे गाते हुए वेणु बजाया करते हैं। एक समान हैं। उन सबके नेत्र विस्मयकारी गुणोंसे युक्त मन्दिरके पश्चिम द्वारपर श्रीदामा, उत्तरमें वसुदामा, पूर्वमें हैं। वे बड़ी मनोहर हैं। उनका वेष मनको मुग्ध कर सुदामा तथा दक्षिण द्वारपर किङ्किणीका निवास है। उस लेनेवाला है। वे सभी किशोर-अवस्था (पंद्रह वर्षकी स्थानसे पृथक् एक सुवर्णमय मन्दिरके भीतर सुवर्णवेदी