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अर्चयव वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
शालग्राममूर्तियोंका पूजन करता है, वह वैकुण्ठलोकमें यदि पी लिया जाय तो वह करोड़ों जन्मोंके पापका नाश प्रतिष्ठित होता है। जो मनुष्य शालग्राम-शिलाके भीतर करनेवाला होता है। गुफाका दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्पके भगवान्के मन्दिरमें खड़ाऊँ या सवारीपर चढ़कर अन्ततक स्वर्गमें निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरीकी जाना, भगवत्-सम्बन्धी उत्सवोंका सेवन न करना, शिला-अर्थात् गोमतीचक्र रहता है, वह स्थान भगवान्के सामने जाकर प्रणाम न करना, उच्छिष्ट या वैकुण्ठलोक माना जाता है; वहाँ मृत्युको प्राप्त हुआ अपवित्र अवस्थामें भगवान्की वन्दना करना, एक मनुष्य विष्णुधाममें जाता है। जो शालग्राम-शिलाकी हाथसे प्रणाम करना, भगवान के सामने ही एक स्थानपर कीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रयका अनुमोदन खड़े-खड़े प्रदक्षिणा करना, भगवान्के आगे पाँव करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्यका समर्थन फैलाना, पलंगपर बैठना, सोना, खाना, झूठ बोलना, करता है, वे सब नरकमें पड़ते हैं। इसलिये देवि! जोर-जोरसे चिल्लाना, परस्पर बात करना, रोना, झगड़ा शालग्रामशिला और गोमतीचक्रकी खरीद-विक्री छोड़ करना, किसीको दण्ड देना, अपने बलके घमंडमें आकर देनी चाहिये। शालग्राम-स्थलसे प्रकट हुए भगवान् किसीपर अनुग्रह करना, स्त्रियोंके प्रति कठोर बात शालग्राम और द्वारकासे प्रकट हुए गोमतीचक्र-इन कहना, कम्बल ओढ़ना, दूसरेकी निन्दा, परायी स्तुति, दोनों देवताओंका जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष गाली बकना, अधोवायुका त्याग (अपशब्द) करना मिलनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारकासे प्रकट हुए शक्ति रहते हुए गौण उपचारोसे पूजा करना-मुख्य गोमतीचक्रसे युक्त, अनेको चक्रोसे चिहित तथा उपचारोंका प्रबन्ध न करना, भगवान्को भोग लगाये चकासन-शिलाके समान आकारवाले भगवान् शालग्राम बिना ही भोजन करना, सामयिक फल आदिको साक्षात् चित्स्वरूप निरञ्जन परमात्मा ही हैं। ओङ्काररूप भगवान्की सेवामें अर्पण न करना, उपयोगमें लानेसे तथा नित्यानन्दस्वरूप शालग्रामको नमस्कार है। बचे हुए भोजनको भगवान्के लिये निवेदन करना, महाभाग शालग्राम ! मैं आपका अनुग्रह चाहता हूँ। भोजनका नाम लेकर दूसरेकी निन्दा तथा प्रशंसा करना, प्रभो ! मैं ऋणसे ग्रस्त हूँ, मुझ भक्तपर अनुग्रह कीजिये। गुरुके समीप मौन रहना, आत्म-प्रशंसा करना तथा
अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तिलककी विधिका वर्णन देवताओंको कोसना-ये विष्णुके प्रति बत्तीस अपराध करता हूँ। ललाटमें केशव, कण्ठमें श्रीपुरुषोत्तम, नाभिमें बताये गये है। 'मधुसूदन ! मुझसे प्रतिदिन हजारों नारायणदेव, हृदयमें वैकुण्ठ, बायीं पसलीमें दामोदर, अपराध होते रहते हैं; किन्तु मैं आपका ही सेवक हूँ, दाहिनी पसलीमें त्रिविक्रम, मस्तकपर हषीकेश, पीठमें ऐसा समझकर मुझे उनके लिये क्षमा करें। * इस पद्मनाभ, कानोंमें गङ्गा-यमुना तथा दोनों भुजाओंमें मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामने पृथ्वीपर श्रीकृष्ण और हरिका निवास समझना चाहिये। उपर्युक्त दण्डकी भाँति पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम करना चाहिये। स्थानोंमें तिलक करनेसे ये बारह देवता संतुष्ट होते हैं। ऐसा करनेसे भगवान् श्रीहरि सदा हजारों अपराध क्षमा तिलक करते समय इन बारह नामोंका उच्चारण करना करते हैं। द्विजातियोंके लिये सबेरे और शाम-दो ही चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर समय भोजन करना वेदविहित है। गोल लौकी, लहसुन, विष्णुलोकको जाता है। भगवान्के चरणोदकको पीना ताड़का फल और भाँटा-इन्हें वैष्णव पुरुषोंको नहीं चाहिये और पुत्र, मित्र तथा स्त्री आदि समस्त परिवारके खाना चाहिये। वैष्णवके लिये बड़, पीपल, मदार, शरीरपर उसे छिड़कना चाहिये। श्रीविष्णुका चरणोदक कुम्भी, तिन्दुक, कोविदार (कचनार) और कदम्बके
* अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निश
मया । तवाहमिति मा मत्वा क्षमस्व मधुसूदन ॥ (७९ । ४४)