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पातालखण्ड]
• वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धताका परिचय .
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देवता, असुर और गन्धर्व-सबने कौतूहलवश आपके चाहिये ?' ऐसा विचार करनेसे उनके हृदयमें कभी हर्ष पुत्रोंके मुखसे रामायणका गान सुना है। सुनकर सभी होता था और कभी संकोच । वे दोनों भावोंके बीचकी प्रसन्न ही हुए हैं ! उन्होंने आपके पुत्रोंकी बड़ी प्रशंसा की स्थितिमें थे। इसी अवस्थामें सीताके आश्रमपर पहुंचे, है। उन दोनों बालकोंने अपने रूप, गान, अवस्था और जो उनके श्रमको दूर करनेवाला था। वहाँ लक्ष्मण रथसे गुणोंके द्वारा तीनों लोकोको मोह लिया है। लोकपालोंने उतरकर सीताके समीप गये और आँखोंमें आँसू भरकर आशीर्वादरूपसे जो कुछ दिया, उसे आपके पुत्रोंने 'आयें! पूजनीये !! भगवति !! कल्याणमयी ! स्वीकार किया। उन्होंने ऋषियों तथा अन्य लोकोंसे भी इत्यादि सम्बोधनोंका बारम्बार उच्चारण करते हुए उनके बढ़कर कीर्ति पायी है। पुण्यश्लोक (पवित्र यशवाले) चरणोंमें गिर पड़े। भगवती सीताने वात्सल्य-प्रेमसे पुरुषोंके शिरोमणि श्रीरघुनाथजी! आप त्रिलोकीनाथ विह्वल होकर लक्ष्मणको उठाया और इस प्रकार होकर भी इस समय गृहस्थ-धर्मकी लीला कर रहे हैं; पूछा-'सौम्य ! मुनिजनोंको ही प्रिय लगनेवाले इस अतः विद्या, शील एवं सद्गुणोंसे विभूषित अपने दोनों वनमें तुम कैसे आये? बताओ, माता कौसल्याके पुत्रोंको उनकी मातासहित ग्रहण कीजिये। सीताने हो गर्भरूपी शुक्तिसे जो मौक्तिकके समान प्रकट हुए हैं, वे आपकी मरी हुई सेनाको जिलाकर उसे प्राण-दान दिया मेरे आराध्यदेव श्रीरघुनाथजी तो कुशलसे है न? देवर ! है-इससे सब लोगोंको उनकी शद्धिका विश्वास हो उन्होंने अकीर्तिसे डरकर तुम्हें मेरे परित्यागका कार्य सौंपा गया है। [यह लोगोंकी प्रतीतिके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण था। यदि इससे भी संसारमें उनकी निर्मल कीर्तिका है] यह प्रसङ्ग पतित पुरुषोंको भी पावन बनानेवाला है। विस्तार हो सके तो मुझे संतोष ही होगा। मैं अपने प्राण मानद ! सौताको शुद्धिके विषयमें न तो आपसे कोई देकर भी पतिदेवके सुयशको स्थिर रखना चाहती हूँ। बात छिपी है, न हमलोगोंसे और न देवताओंसे ही। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो भी मैंने उनका थोड़ी देरके केवल साधारण लोगोंको कुछ भ्रम हो गया था, किन्तु लिये भी कभी त्याग नहीं किया है। [निरन्तर उन्हींका उपर्युक्त घटनासे वह भी अवश्य दूर हो गया। चिन्तन करती रहती हूँ] मेरे ऊपर सदा कृपा रखनेवाली
शेषजी कहते हैं-मुने ! भगवान् श्रीराम यद्यपि माता कौसल्याको तो कोई कष्ट नहीं है ? वे कुशलसे हैं सर्वज्ञ हैं, तो भी जब वाल्पीकिजीने उन्हें इस प्रकार न? भरत आदि भाई भी तो सकुशल हैं न? तथा समझाया, तो वे उनकी स्तुति और नमस्कार करके महाभागा सुमित्रा, जो मुझे अपने प्राणोंसे भी बढ़कर लक्ष्मणसे बोले-'तात ! तुम सुमित्रसहित रथपर प्रिय मानती हैं, कैसी हैं? उनकी कुशल बताओ।' बैठकर धर्मचारिणी सीताको पुत्रोसहित ले आनेके इस प्रकार सीताने जब बारम्बार सबकी कुशल लिये अभी जाओ। वहाँ मेरे तथा मुनिके इन वचनोको पूछी तो लक्ष्मणने कहा-'देवि ! महाराज कुशलसे हैं सुनाना और सीताको समझा-बुझाकर शीघ्र ही और आपकी भी कुशलता पूछ रहे हैं। माता कौसल्या, अयोध्यापुरीमें ले आना।'
सुमित्रा तथा राजभवनकी अन्य सभी देवियोंने प्रेमपूर्वक लक्ष्मणने कहा-प्रभो ! मैं अभी जाऊँगा, यदि आशीर्वाद देते हुए आपकी कुशल पूछी है। भरत और आप सब लोगोंका प्रिय संदेश सुनकर महारानी सीताजी शत्रुनने कुशल-प्रश्रके साथ ही आपके श्रीचरणोंमें यहाँ पधारेंगी तो समझूगा, मेरी यात्रा सफल हो गयी। प्रणाम कहलाया है, जिसे मैं सेवामें निवेदन करता हूँ।
श्रीरामचन्द्रजीसे ऐसा कहकर लक्ष्मण उनकी गुरुओं तथा समस्त गुरुपनियोंने भी आशीर्वाद दिया है, आज्ञासे रथपर बैठे और मुनिके एक शिष्य तथा साथ ही कुशल-मङ्गल भी पूछा है। महाराज श्रीराम सुमित्रको साथ लेकर आश्रमको गये। रास्ते में यह सोचते आपको बुला रहे हैं। हमारे स्वामीने कुछ रोते-रोते जाते थे कि 'भगवती सीताको किस प्रकार प्रसन्न करना आपके प्रति जो सन्देश दिया है, उसे सुनिये। वक्ताके