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पातालखण्ड ]
• वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धताका परिचय .
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पुष्कलने सुबाहु-पुत्रको मूर्च्छित करके विजय प्राप्त की। उसको ध्यान देकर सुनिये। वहाँ एक सोलह वर्षका तब महाराज सुबाहु भी क्रोधमें भरकर रणभूमिमें आये बालक आया, जो रूप-रंगमें हू-बहू आपहीके समान
और पवनकुमार हनुमान्जोसे बलपूर्वक युद्ध करने लगे। था। वह बलवानोंमें श्रेष्ठ था। उसने भालपत्रसे चिह्नित उनका ज्ञान शापसे विलुप्त हो गया था। हनुमानजीके अश्वको देखा और उसे पकड़ लिया। वहाँ सेनापति चरण-प्रहारसे उनका शाप दूर हुआ और वे अपने खोये कालजित्ने उसके साथ घोर युद्ध किया। किन्तु उस वीर हुए ज्ञानको पाकर अपना सब कुछ आपकी सेवामें बालकने अपनी तीखी तलवारसे सेनापतिका काम अर्पण करके अश्वके रक्षक बन गये। ये ऊँचे डौल- तमाम कर दिया। फिर उस वीरशिरोमणिने पुष्कल आदि डौलवाले राजा सुबाहु हैं, जो आपको नमस्कार करते हैं। अनेकों बलवानोंको युद्धमें मार गिराया और शत्रुघ्नको ये युद्धकी कलामें बड़े निपुण है। आप अपनी दया- भी मूर्च्छित किया। तब राजा शत्रुघ्नने अपने हृदयमें दृष्टिसे देखकर इनके ऊपर स्नेहकी वर्षा कीजिये। महान् दुःखका अनुभव करके क्रोध किया और तदनन्तर, अपना यज्ञसम्बन्धी अश्व देवपुरमें गया, जो बलवानोंमें श्रेष्ठ उस वीरको मूर्छित कर दिया। शत्रुघ्नके भगवान् शिवका निवासस्थान होनेके कारण अत्यन्त द्वारा ज्यों ही वह मूर्छित हुआ त्यों ही उसीके आकारका शोभा पा रहा था। वहाँका हाल तो आप जानते ही हैं, एक दूसरा बालक वहाँ आ पहुंचा। फिर तो उसने और क्योंकि स्वयं आपने पदार्पण किया था। तत्पश्चात् इसने भी एक-दूसरेका सहारा पाकर आपकी सारी विद्युन्माली दैत्यका वध किया गया। उसके बाद राजा सेनाका संहार कर डाला । मू में पड़े हुए सभी वोरोके सत्यवान् हमलोगोंसे मिले। महामते ! वहाँसे आगे अस्त्र और आभूषण उतार लिये। फिर सुग्रीव और जानेपर कुण्डलनगरमें राजा सुरथके साथ जो युद्ध हुआ, हनुमान्-इन दो वानरोंको उन्होंने पकड़कर बांधा और उसका हाल भी आपको मालूम ही है। कुण्डलनगरसे इन्हें वे अपने आश्रमपर ले गये। पुनः कृपा करके छूटनेपर अपना घोड़ा सब ओर बेखटके विचरता रहा। उन्होंने स्वयं ही यह यज्ञका महान् अश्व लौटा दिया और किसीने भी अपने पराक्रम और बलके घमण्डमें आकर मरी हुई समस्त सेनाको जीवन-दान दिया। तत्पश्चात् उसे पकड़नेका नाम नहीं लिया। नरश्रेष्ठ ! तदनन्तर, घोड़ा लेकर हमलोग आपके समीप आ गये। इतनी ही लौटते समय जब आपका मनोरम अश्व महर्षि वाल्मीकिके बातें मुझे ज्ञात हैं, जिन्हें मैंने आपके सामने प्रकट रमणीय आश्रमपर पहुंचा, तो वहाँ जो कौतुक हुआ, कर दिया।
वाल्मीकिजीके द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको
जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
शेषजी कहते हैं-मुने ! सुमतिने जो वाल्मीकि किसलिये रहते हैं ? सुननेमें आया है, वे धनुर्विद्यामें बड़े मुनिके आश्रमपर रहनेवाले दो बालकोंकी चर्चा की, उसे प्रवीण हैं। अमात्यके मुखसे उनका वर्णन सुनकर मुझे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी समझ गये वे दोनों मेरे ही पुत्र हैं, बड़ा आश्चर्य हो रहा है ! वे कैसे बालक है, जिन्होंने तो भी उन्होंने अपने यज्ञमें पधारे हुए महर्षि वाल्मीकिसे खेल-खेलमें ही शत्रुघ्नको भी मूर्छित कर दिया और पूछा-मुनिवर ! आपके आश्रमपर मेरे समान रूप हनुमानजीको भी बाँध लिया था? महर्षे ! कृपा करके धारण करनेवाले दो महाबली बालक कौन हैं? वहाँ उन बालकोंका सारा चरित्र सुनाइये।