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पातालखण्ड]
• शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना •
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पकड़ा, अनेकों वीरोंको मार गिराया और इन कपीश्वरोको लौटाये देते है तथा इन वानरोंको भी छोड़ देंगे। तुमने भी बाँध लिया-यह सब अच्छा नहीं हुआ। वीरो! जो कुछ कहा है, सबका हम पालन करेंगे।' तुम नहीं जानते, वह तुम्हारे पिताका ही घोड़ा है [श्रीराम मातासे ऐसा कहकर वे दोनों वीर पुनः रणभूमिमें तुम्हारे पिता हैं], उन्होंने अश्वमेध-यज्ञके लिये उस गये और वहाँ उन दोनों कपीश्वरों तथा उस अश्वमेधअश्वको छोड़ रखा था। इन दोनों वानर वीरोको छोड़ दो योग्य अश्वको भी छोड़ आये। अपने पुत्रोंके द्वारा सेनाका तथा उस श्रेष्ठ अश्वको भी खोल दो।
मारा जाना सुनकर सीतादेवीने मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीमाताकी बात सुनकर उन बलवान् बालकोने का ध्यान किया और सबके साक्षी भगवान् सूर्यकी ओर कहा-'माँ ! हमलोगोंने क्षत्रिय-धर्मके अनुसार उस देखा। वे कहने लगी- 'यदि मैं मन, वाणी तथा बलवान् राजाको परास्त किया है। क्षात्रधर्मके अनुसार क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीका ही भजन करती हूँ, युद्ध करनेवालोको अन्यायका भागी नहीं होना पड़ता। दूसरे किसीको कभी मनमें भी नहीं लाती तो ये राजा आजके पहले जब हमलोग पढ़ रहे थे, उस समय महर्षि शत्रुघ्न जीवित हो जायें तथा इनकी वह विशाल सेना भी, वाल्मीकिजीने भी हमसे ऐसा ही कहा था-'क्षात्र- जो मेरे पुत्रोंके द्वारा बलपूर्वक नष्ट की गयी है, मेरे धर्मके अनुसार पुत्र पितासे, भाई भाईसे और शिष्य सत्यके प्रभावसे जी उठे।' पतिव्रता जानकीने ज्यों ही गुरुसे भी युद्ध कर सकता है, इससे पाप नहीं होता।' यह वचन मुँहसे निकाला, त्यों ही वह सारी सेना, जो तुम्हारी आज्ञासे हमलोग अभी उस उत्तम अश्वको संग्राम-भूमिमें नष्ट हुई थी, जीवित हो गयी। .
शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री समतिका
उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
शेषजी कहते हैं-मुने ! रणभूमिमें पड़े हुए वीर निवाससे शोभा पा रहा था। शत्रुघ्न मणिमय रथपर बैठे शत्रुघ्नने क्षणभरमें मूर्छा त्याग दी तथा अन्यान्य बलवान् महान् कोदण्ड धारण किये हुए जा रहे थे। उनके साथ वीर भी, जो मूछमें पड़े थे, जीवित हो गये। शत्रुधने भरतकुमार पुष्कल और राजा सुरथ भी थे। चलतेदेखा अश्वमेधका श्रेष्ठ अश्व सामने खड़ा है, मेरे चलते क्रमशः वे अपनी नगरी अयोध्या में पहुँचे, जो मस्तकका मुकुट गायब है तथा मरी हुई सेना भी जी उठी सूर्यवंशी क्षत्रियोंसे सुशोभित थी। वहाँ फहराती हुयी है। यह सब देखकर उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और अनेकों ऊंची-ऊंची पताकाएँ उस नगरकी शोभा बढ़ा वे मूछासे जगे हुए बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सुमतिसे बोले- रही थीं। दुर्गके कारण उसकी सुषमा और भी बढ़ गयी 'मन्त्रिवर ! इस बालकने कृपा करके यज्ञ पूर्ण करनेके थी। श्रीरामचन्द्रजौने जब सुना कि महात्मा शत्रुघ्न और लिये यह घोड़ा दे दिया है। अब हमलोग जल्दी ही वौर पुष्कल के साथ अश्व आ पहुंचा तो उन्हें बड़ा हर्ष श्रीरघुनाथजीके पास चलें। वे घोड़ेके आनेकी प्रतीक्षा हुआ और बलवानोंमें श्रेष्ठ भाई लक्ष्मणको उन्होंने करते होंगे।' यों कहकर वे अपने रथपर जा बैठे और शत्रुघ्नके पास भेजा। लक्ष्मण सेनाके साथ जाकर घोड़ेको साथ लेकर वेगपूर्वक उस आश्रमसे दूर चले प्रवाससे आये हुए भाई शत्रुघ्नसे बड़ी प्रसन्नताके साथ गये। भेरी और शङ्खकी आवाज बंद थी। उनके मिले। शत्रुघ्रका शरीर अनेको घावोंसे सुशोभित था। पीछे-पीछे विशाल चतुरङ्गिणी सेना चली जा रही थी। उन्होंने कुशल पूछी और तरह-तरहकी बातें की। उनसे तरङ्ग-मालाओसे सुशोभित गङ्गा नदीको पार करके मिलकर शत्रुधको बड़ी प्रसन्नता हुई। महामना लक्ष्मणने उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश किया, जो आत्मीयजनोंके भाई शत्रुघ्नके साथ अपने रथपर बैठकर विशाल