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पातालखण्ड]
• सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ तथा अश्वमेध-कथा-प्रवणकी महिमा .
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बहुत-से मनुष्य आये और उन सबको ठगनेके लिये मैंने स्मरण करना चाहिये, जिससे उस परमपदकी प्राप्ति होती कई प्रकारका दम्भ प्रकट किया। इसी समय महातेजस्वी है, जो देवता आदिके लिये भी दुर्लभ है। अश्वकी महर्षि दुर्वासा अपनी इच्छाके अनुसार पृथ्वीपर विचरते मुक्तिरूप विचित्र व्यापार देखकर मुनियोंने अपनेको भी हुए वहाँ आये और सामने खड़े होकर मुझ दम्भीको कृतार्थ समझा; क्योंकि वे स्वयं भी श्रीरामचन्द्रजीके देखने लगे। मैंने मौन धारण कर रखा था; न तो उठकर चरणोंके दर्शन और करस्पर्शसे पवित्र हो रहे थे। उन्हें अर्घ्य दिया और न उनके प्रति कोई स्वागतपूर्ण तदनन्तर, मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी, जो सम्पूर्ण देवताओंका वचन ही मुंहसे निकाला । मैं उन्मत्त हो रहा था । महामति मनोभाव समझनेमें निपुण थे, बोले-'रघुनन्दन ! आप दुर्वासाका स्वभाव तो यों ही तीक्ष्ण है, मुझे दम्भ करते देवताओंको कर्पूर भेंट कीजिये, जिससे वे स्वयं प्रत्यक्ष देख वे और भी प्रचण्ड क्रोधके वशीभूत हो गये तथा प्रकट होकर हविष्य प्रहण करेंगे।' यह सुनकर शाप देते हुए बोले-'तापसाधम ! यदि तू सरयूके श्रीरामचन्द्रजीने देवताओंकी प्रसन्नताके लिये शीघ्र ही तटपर ऐसा घोर दम्भ कर रहा है तो पशु-योनिको प्राप्त बहुत सुन्दर कर्पूर अर्पण किया। इससे महर्षि वसिष्ठके हो जा।' मुनिके दिये हुए शापको सुनकर मुझे बड़ा दुःख हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अद्भुतरूपधारी हुआ और मैंने उनके चरण पकड़ लिये । रघुनन्दन ! तब देवताओंका आवाहन किया। मुनिके आवाहन करनेपर मुनिने मुझपर महान् अनुग्रह किया। वे बोले- एक ही क्षणमें सम्पूर्ण देवता अपने-अपने परिवारसहित 'तापस ! तू श्रीरामचन्द्रजीके अश्वमेध यज्ञका अश्व वहाँ आ पहुँचे। बनेगा; फिर भगवान्के हाथका स्पर्श होनेसे तू दम्भहीन, शेषजी कहते हैं-मुने ! उस यज्ञमें दी जानेवाली दिव्य एवं मनोहर रूप धारण कर परमपदको प्राप्त हो हवि श्रीरामचन्द्रजीकी दृष्टि पड़नेसे अत्यन्त पवित्र हो जायगा।' महर्षिका दिया हुआ यह शाप भी मेरे लिये गयी थी। देवताओसहित इन्द्र उसका आस्वादन करने अनुग्रह बन गया। राम ! अनेकों जन्मोंके पश्चात् देवता लगे, उन्हें तृप्ति नहीं होती थी-अधिकाधिक लेनेकी आदिके लिये भी जिसकी प्राप्ति होनी कठिन है वही इच्छा बनी रहती थी। नारायण, महादेव, ब्रह्मा, वरुण, आपकी अङ्गुलियोका अत्यन्त दुर्लभ सर्श आज मुझे कुबेर तथा अन्य लोकपाल सब-के-सब तृप्त हो अपनाप्राप्त हुआ है। महाराज ! अब आज्ञा दीजिये, मैं आपकी अपना भाग लेकर अपने धामको चले गये। होताका कृपासे महत् पदको प्राप्त हो रहा हूँ। जहाँ न शोक है, कार्य करनेवाले जो प्रधान-प्रधान ऋषि थे, उन सबको न जरा; न मृत्यु है, न कालका विलास-उस स्थानको भगवान्ने चारों दिशाओंमें राज्य दिया तथा उन्होंने भी जाता हूँ। राजन् ! यह सब आपका ही प्रसाद है।' सन्तुष्ट होकर श्रीरघुनाथजीको उत्तम आशीर्वाद दिये।
यह कहकर उसने श्रीरघुनाथजीकी परिक्रमा की तत्पश्चात् वसिष्ठजीने पूर्णाहुति करके कहाऔर श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान्के चरणोंकी कृपासे 'सौभाग्यवती स्त्रियाँ आकर यज्ञकी पूर्ति करनेवाले वह उनके सनातन धामको चला गया। उस दिव्य महाराजको संवर्द्धना (अभ्युदय-कामना) करें।' उनकी पुरुषकी बातें सुनकर अन्य साधारण लोगोंको भी बात सुनकर खियाँ उठी और बड़े-बड़े राजाओद्वारा श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाका ज्ञान हुआ और वे पूजित श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर, जो अपने सौन्दर्यसे सब-के-सब परस्पर आनन्दमग्न होकर बड़े विस्मयमें कामदेवको भी परास्त कर रहे थे, अत्यत्त हर्षके साथ पड़े। महाबुद्धिमान् वात्स्यायनजी ! सुनिये; दम्भपूर्वक लाजा (खील) की वर्षा करने लगी। इसके बाद स्मरण करनेपर भी भगवान् श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं, महर्षिने श्रीरामचन्द्रजीको अवभृथ (यज्ञान्त) नानके फिर यदि दम्भ छोड़कर उनका भजन किया जाय तब तो लिये प्रेरित किया। तब श्रीरघुनाथजी आत्मीयजनोंके कहना ही क्या है ? जैसे भी हो, श्रीरामचन्द्रजीका निरन्तर साथ सरयूके उतम तटपर गये। उस समय जो लोग