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• अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
यह वन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। इसके सिवा, मैं तुमको आपके सिवा और सब कुछ मैंने अपने मनसे तुच्छ भी किसी भारी दुःखसे आतुर देखती हूँ। तुम्हारी आँखें समझा है। महेश्वर ! प्रत्येक जन्ममें आप ही मेरे पति हो आँसुओंसे भरी है, इनसे व्याकुलताके भाव प्रकट होते हैं और मैं आपके ही चरणोंके चिन्तनसे अपने अनेको और मुझे भी पग-पगपर हजारों अपशकुन दिखायी देते पापोंका नाश कर आपकी सती-साध्वी पत्नी बनी है। सच बताओ, क्या बात है?'
रहूँ-यही मेरी प्रार्थना है।' सीताजीके इतना कहनेपर भी लक्ष्मणजीके मुखसे "लक्ष्मण! मेरी सासुओंसे भी यह संदेश कोई भी बात नहीं निकली, वे चुपचाप उनकी ओर देखते कहना- 'माताओ ! अनेकों जन्तुओंसे भरे हुए इस घोर हुए खड़े रहे। तब जानकोजीने बारम्बार प्रश्न करके उनसे जंगलमें मैं आप सब लोगोंके चरणोंका स्मरण करती हूँ। उत्तर देनेके लिये बड़ा आग्रह किया। उनके आग्रहपूर्वक मैं गर्भवती हैं, तो भी महात्मा रामने मुझे इस वनमें त्याग पूछनेपर लक्ष्मणजीका गला भर आया। उन्होंने शोक दिया है।' 'सौमित्रे ! अब तुम मेरी बात सुनोप्रकट करते हुए सीताजीको उनके परित्यागकी बात श्रीरघुनाथजीका कल्याण हो। मैं अभी प्राण त्याग देती, बतायो । मुनिवर ! वह वनके तुल्य कठोर वचन सुनकर किन्तु विवश हैं: अपने गर्भ में श्रीरामचन्द्रजीके तेजकी रक्षा सीताजी जड़से कटी हुई लताकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं। कर रही हूँ। तुम जो उनके वचनोंको पूर्ण करते हो, सो विदेहकुमारीको पृथ्वीपर पड़ी देख लक्ष्मणजीने पल्लवोंसे ठीक ही है; इससे तुम्हारा कल्याण होगा। तुम श्रीरामके हवा करके उन्हें सचेत किया । होशमें आनेपर जानकीजीने चरणकमलोंके सेवक और उनके अधीन हो, अतः तुम्हें कहा-"देवर ! मुझसे परिहास न करो। मैंने कोई पाप ऐसा ही करना उचित है। अच्छा, अव श्रीरामचन्द्रजीके नहीं किया है, फिर श्रीरघुनाथजी मुझे कैसे छोड़ देंगे। वे समीप जाओ; तुम्हारे मार्ग मङ्गलमय हों। मुझपर कृपा परम बुद्धिमान् और महापुरुष है, मेरा त्याग कैसे कर करके कभी-कभी मेरी याद करते रहना।" सकते हैं। वे जानते हैं मैं निष्पाप हैं, फिर भी एक धोबीके कहनेसे मुझे छोड़ देंगे? [ऐसी आशा नहीं है।]" इतना कहते-कहते वे फिर बेहोश हो गयीं। इस बार उन्हें मूर्छित देख लक्ष्मणजी फूट-फूटकर रोने लगे। जब पुनः उनको चेत हुआ, तब लक्ष्मणजीको दुःखसे आतुर और रुद्धकण्ठ देखकर वे बहुत दुःखी हुई और बोली"सुमित्रानन्दन ! जाओ, तुम धर्मके स्वरूप और यशके सागर श्रीरामचन्द्रजीसे तपोनिधि वसिष्ठ मुनिके सामने ही मेरी एक बात पूछना--'नाथ ! यह जानते हुए भी कि सौता निष्पाप है, जो आपने मुझे त्याग दिया है, यह बर्ताव आपके कुलके अनुरूप हुआ है या शास्त्र-ज्ञानका फल है? मैं सदा आपके चरणोंमें ही अनुराग रखती हूँ तो भी जो आपके द्वारा मेरा त्याग हुआ है, इसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह सब मेरे भाग्य-दोषसे हुआ है, इसमें मेरा प्रारव्य ही कारण है। वीरवर ! आपका सदा और सर्वत्र कल्याण हो। मैं इस वनमें आपका ही स्मरण करती हुई ।
SNE प्राण धारण करूंगी। मन, वाणी और क्रियाके द्वारा इतना कहकर सीताजी लक्ष्मणजीके सामने ही एकमात्र आप ही मेरे सर्वोत्तम आराध्यदेव हैं। रघुनन्दन ! अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उन्हें मूर्च्छित