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पातालखण्ड ] • सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी मूा; वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म.
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तपस्विनियोंके दर्शनकी इच्छासे यात्रा करना चाहती हूँ. महापातक पलायन कर जाते हैं उन्हें वहाँ चारों ओर
अपने रहने योग्य कोई स्थान नहीं दिखायी देता । गङ्गाके किनारे पहुँचकर लक्ष्मणजीने रथघर बैठी हुई सीताजीसे
आँसू बहाते हुए कहा-'भाभी ! चलो, लहरोंसे भरी हुई गङ्गाको पार करो।' सीताजी देवरकी बात सुनकर तुरंत रथसे उतर गयौं।
। तदनन्तर, नावसे गङ्गाके पार होकर लक्ष्मणजी जानकोजीको साथ लिये वनमें चले। वे श्रीरामचन्द्रजीकी
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फिर ये दुःख देनेवाले अपशकुन कैसे हो रहे हैं! श्रीरामका, भरतका तथा तुम्हारे छोटे भाई शत्रुघ्रका कल्याण हो, उनकी प्रजामें सर्वत्र शान्ति रहे, कहीं कोई विप्लव या उपद्रव न हो।'
जानकीजीको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मण कुछ बोल न सके, आँसुओंसे उनका गला भर आया। इसी प्रकार आगे जाकर सीताजीने फिर देखा, बहुत-से मृग बायीं ओरसे घूमकर निकले जा रहे हैं। वे भारी दुःखको आज्ञाका पालन करनेमें कुशल थे; अतः सौताको सूचना देनेवाले थे। उन्हें देखकर जानकोजी कहने अत्यन्त भयंकर एवं दुःखदायी जंगलमें ले गये-जहाँ लगीं- 'आज ये मृग जो मेरी बायीं ओरसे निकल रहे बबूल, खैरा और धव आदिके महाभयानक वृक्ष थे, जो हैं, सो ठीक ही है; श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर दावानलसे दग्ध होनेके कारण सूख गये थे। ऐसा जंगल अन्यत्र जानेवाली सौताके लिये ऐसा होना उचित ही है। देखकर सीता भयके कारण बहुत चिन्तित हुई। काँटोसे नारियोंका सबसे बड़ा धर्म है-अपने स्वामीके चरणोंका उनके कोमल चरणोंमें घाव हो गये। वे लक्ष्मणसे पूजन, उसीको छोड़कर मैं अन्यत्र जा रही हैं; अतः मेरे बोली- वीरवर ! यहाँ अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनियोके लिये जो दण्ड मिले, उचित ही है।' इस प्रकार मार्गमें रहने योग्य आश्रम मुझे नहीं दिखायी देते, जो नेत्रोंको पारमार्थिक विचार करती हुई देवी जानकीने गङ्गाजीको सुख प्रदान करनेवाले हैं तथा महर्षियोंकी तपस्विनी देखा, जिनके तटपर मुनियोका समुदाय निवास करता स्त्रियोंके भी दर्शन नहीं होते। यहाँ तो केवल भयंकर है। जिनके जलकणोंका स्पर्श होते ही राशि-राशि पक्षी, सूखे वृक्ष और दावानलसे सब ओर जलता हुआ