________________
. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पयपुराण
.
.
.
.
.
आ रहे है, जो तपस्याके पुञ्ज जान पड़ते हैं। उन्हें देख जानो कि दूसरे स्थानपर बना हुआ मेरे पिताका ही सीताजीने हाथ जोड़कर कहा-व्रतके सागर और यह घर है। वेदोंके साक्षात् स्वरूप महर्षिको नमस्कार है। उनके सती सौताका मुख शोकके आँसुओंसे भीगा था।
मुनिका सान्त्वनापूर्ण वचन सुनकर उन्हें कुछ सुख मिला । उनके नेत्रोंमें इस समय भी दुःखके आँसू छलक रहे थे। वाल्मीकिजी उन्हें आश्वासन देकर तापसी स्त्रियोंसे भरे हुए अपने पवित्र आश्रमपर ले गये। सीता महर्षिके पीछे-पीछे गयीं और वे मुनिसमुदायसे भरे हुए अपने आश्रमपर पहुँचकर तापसियोंसे बोले-'अपने
TATIONAL 24MJUNTRI TIMIRRORIM
यों कहनेपर महर्षिने आशीर्वादके द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा-'बेटी ! तुम अपने पतिके साथ चिरकालतक जीवित रहो। तुम्हें दो सुन्दर पुत्र प्राप्त हों। बताओ, तुम कौन हो? इस भयङ्कर वनमें क्यों आयी हो तथा क्यों ऐसी हो रही हो? सब कुछ बताओ, जिससे मैं तुम्हारे दुःखका कारण जान सकूँ।' तब श्रीरघुनाथजीकी पली सीताजी एक दीर्घ निःश्वास ले कांपती हुई आश्रमपर जानकी आयी हैं [उनका स्वागत करो] । करुणामयी वाणीमें बोलौं—'महर्षे ! मुझे श्रीरघुनाथजीकी महामना सीताने सब तपस्विनियोंको प्रणाम किया और सेविका समझिये। मैं बिना अपराधके ही त्याग दी उन्होंने भी प्रसन्न होकर उन्हें छातीसे लगाया। तपोनिधि गयी हूँ। इसका कारण क्या है, यह मैं बिलकुल नहीं वाल्पोकिने अपने शिष्योंसे कहा-'तुम जानकीके लिये जानती। श्रीरामचन्द्रजौकी आज्ञासे लक्ष्मण मुझे यहाँ एक सुन्दर पर्णशाला तैयार करो।' आज्ञा पाकर उन्होंने छोड़ गये हैं।'
पत्तों और लकड़ियोंके द्वारा एक सुन्दर कुटी निर्माण की। वाल्मीकिजी बोले-विदेहकुमारी ! मुझे अपने पतिव्रता जानकी उसीमें निवास करने लगीं। वे पिताका गुरु समझो, मेरा नाम वाल्मीकि है। अब तुम वाल्मीकि मुनिकी टहल बजाती हुई फलाहार करके दुःख न करो, मेरे आश्रमपर आओ। पतिव्रते ! तुम यही रहती थी तथा मन और वाणीसे निरन्तर राम-मन्त्रका