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भूमिखण्ड ]
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पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन
इन्द्रने कहा- यह महाभागा सुकला सती है। इसके सत्यसे सन्तुष्ट होकर हमलोग तुम्हें वर देना चाहते हैं।
यह कहकर इन्द्रने उसके सतीत्वकी परीक्षाका सारा वृत्तान्त थोड़े में कह सुनाया। उसके सदाचारका माहात्म्य सुनकर उसके स्वामीको बड़ी प्रसन्नता हुई। हर्षोल्लाससे कृकलके नेत्र डबडबा आये। धर्मात्मा वैश्यने पत्नीके साथ समस्त देवताओंको बारम्बार साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा - 'महाभाग देवगण! आप सब लोग प्रसन्न हो; तीनों सनातन देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हमपर सन्तुष्ट हों तथा अन्य जो पुण्यात्मा ऋषि मुझपर कृपा करके यहाँ पधारे हैं, वे भी प्रसन्नता प्राप्त करें। मैं सदा भगवान्की भक्ति करता रहूँ। आपलोगोंकी कृपासे धर्म तथा सत्यमें मेरा निरन्तर अनुराग बना रहे। तत्पश्चात् अन्तमें पत्नी और पितरके साथ मैं भगवान् श्रीविष्णुके
वेनने कहा -भगवन्! आपने सब तीर्थोंमें उत्तम भार्या तीर्थका वर्णन तो किया, अब पुत्रोंको तारनेवाले पितृ तीर्थका वर्णन कीजिये ।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें कुण्डल नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनके सुयोग्य पुत्रका नाम सुकर्मा था। सुकर्माके माता और पिता दोनों ही अत्यन्त वृद्ध, धर्मज्ञ और शास्त्रवेत्ता थे। सुकर्माको भी धर्मका पूर्ण ज्ञान था। वे श्रद्धायुक्त होकर बड़ी भक्तिके साथ दिन-रात माता-पिताकी सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने पितासे ही सम्पूर्ण वेद और अनेक शास्त्रोंका अध्ययन किया। वे पूर्णरूपसे सदाचारका पालन करनेवाले, जितेन्द्रिय और सत्यवादी थे। अपने ही हाथों माता-पिताका शरीर दबाते पैर धोते और उन्हें स्नान- भोजन आदि कराते थे। राजेन्द्र सुकर्मा स्वभावसे ही भक्तिपूर्वक माता-पिताकी परिचर्या करते और सदा उन्हींके ध्यानमें लीन रहते थे ।
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पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहने से पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
धाममें जाना चाहता हूँ।'
देवता बोले- महाभाग ! एवमस्तु यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- -राजन् ! यह कहकर देवताओंने उन दोनों पति-पत्नीके ऊपर फूलांकी वर्षा की तथा ललित, मधुर और पवित्र संगीत सुनाया। वर देकर वे उस पतिव्रताकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये। इस परम उत्तम और पवित्र उपाख्यानको मैंने पूर्णरूपसे तुम्हें सुना दिया। राजन्! जो मनुष्य इसे सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। स्त्रीमात्रको सुकलाका उपाख्यान श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिये। इसके श्रवणसे वह सौभाग्य, सतीत्व तथा पुत्र-पौत्रोंसे युक्त होती है। इतना ही नहीं, पतिके साथ सुखी रहकर वह निरन्तर आनन्दका अनुभव करती है।
उन्हीं दिनों कश्यप-कुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण थे, जो पिप्पल नामसे प्रसिद्ध थे। वे सदा धर्म-कर्ममें लगे रहते थे और इन्द्रिय-संयम, पवित्रता तथा मनोनिग्रहसे सम्पन्न थे। एक समयकी बात है, वे महामना बुद्धिमान् ब्राह्मण दशारण्यमें जाकर ज्ञान और शान्तिके साधनमें तत्पर हो तपस्या करने लगे। उनकी तपस्याके प्रभावसे आस-पासके समस्त प्राणियोंका पारस्परिक वैर-विरोध शान्त हो गया। वे सब वहाँ एक पेटसे पैदा हुए भाइयोंको तरह हिल-मिलकर रहते थे। पिप्पलकी तपस्या देख मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।
देवता कहने लगे- 'अहो ! इस ब्राह्मणकी कितनी तीव्र तपस्या है। कैसा मनोनिग्रह है और कितना इन्द्रियसंयम है ! मनमें विकार नहीं चित्तमें उद्वेग नहीं।' काम-क्रोधसे रहित हो, सर्दी-गर्मी और हवाका झोंका सहते हुए वे तपस्वी ब्राह्मण पर्वतकी भाँति अविचल