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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पास जाइये। मैं अभी एक क्षणमें राजा वीरमणिको आते देख राजाने अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण जीतकर आ रहा हूँ।
सायकोंसे उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। बाणोंका काटा हनुमानजी बोले-बेटा ! राजा वीरमणिसे जाना देख शत्रु-वीरोंका विनाश करनेवाले भरतकुमारके भिड़नेका साहस न करो। ये दानी, शरणागतकी रक्षामें हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तीन बाणोंसे राजाके कुशल, बलवान् और शौर्यसे शोभा पानेवाले हैं। तुम ललाटको बींध डाला । उन बाणोंकी चोटसे राजाको बड़ी अभी बालक हो और राजा वृद्ध। ये सम्पूर्ण अस्त्र- व्यथा हुई। वे प्रचण्ड क्रोधमें भर गये और वीर वेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। इन्होंने युद्धमें अनेकों शूरवीरोंको पुष्कलकी छातीमें उन्होंने नौ बाण मारे। तब तो परास्त किया है। तुम्हें मालूम होना चाहिये कि भगवान् पुष्कलका क्रोध भी बढ़ा। उन्होंने तीखे पर्ववाले सौ सदाशिव इनके रक्षक हैं और सदा इनके पास रहते हैं। बाण मारकर तुरंत ही राजाको घायल कर दिया। उन वे राजाकी भक्तिके वशीभूत होकर इनके नगरमें पार्वती- बाणोंके प्रहारसे राजाका कवच, किरीट, शिरस्त्राण तथा सहित निवास करते हैं।
रथ-सभी छिन्न-भिन्न हो गये। तब वीरमणि दूसरे पुष्कलने कहा-कपिश्रेष्ठ ! माना कि राजाने रथपर सवार होकर भरत-कुमारके सामने आये और भगवान् शङ्करको भक्तिसे वशमें करके अपने नगरमें बोले-'श्रीरामचन्द्रजीके चरण-कमलोंमें भ्रमरके समान स्थापित कर रखा है; परन्तु भगवान् शङ्कर स्वयं जिनकी अनुराग रखनेवाले वीर पुष्कल ! तुम धन्य हो !' ऐसा आराधना करके सर्वोत्कृष्ट स्थानको प्राप्त हुए हैं, वे कहकर अस्त्र-विद्यामें कुशल राजाने उनपर असंख्य श्रीरघुनाथजी मेरा हृदय छोड़कर कहीं नहीं जाते। जहाँ बाणोंका प्रहार किया। वहाँ पृथ्वीपर और दिशाओंमें श्रीरघुनाथजी हैं, वहीं सम्पूर्ण चराचर जगत् है; अतः मैं उनके बाणोंके सिवा दूसरा कुछ नहीं दिखायी देता था। राजा वीरमणिको युद्धमें जीत लूंगा।
अपनी सेनाका यह संहार देखकर रथियोंमें अग्रगण्य . धीरतापूर्वक कही हुई पुष्कलकी ऐसी वाणी सुनकर पुष्कलने भी शत्रुपक्षके योद्धाओंका विनाश आरम्भ हनुमान्जी राजाके छोटे भाई वीरसिंहसे युद्ध करनेके किया। हाथियोंके मस्तक विदीर्ण होने लगे, उनके मोती लिये चले गये। पुष्कल द्वैरथ-युद्धमें कुशल थे और बिखर-बिखरकर गिरने लगे। उस समय क्रोधमें भरे हुए सुवर्णजटित रथपर विराजमान थे। वे राजाको ललकारते पुष्कलने राजा वीरमणिको सम्बोधित करके शङ्ख देख उनका सामना करनेके लिये गये। उन्हें आया बजाकर निर्भयतापूर्वक कहा-'राजन् ! आप वृद्ध देखकर राजा वीरमणिने कहा- 'बालक ! मेरे सामने न होनेके कारण मेरे मान्य हैं, तथापि इस समय युद्धमें मेरा आओ, मैं इस समय क्रोधमें भरा हूँ युद्धमें मेरा क्रोध महान् पराक्रम देखिये। वीरवर ! यदि तीन बाणोंसे मैं और भी बढ़ जाता है; यदि प्राण बचानेकी इच्छा हो तो आपको मूर्च्छित न कर दूं तो जो महापापी मनुष्य लौट जाओ। मेरे साथ युद्ध मत करो।' राजाका यह पापहारिणी गङ्गाजीके तटपर जाकर भी उनकी निन्दा वचन सुनकर पुष्कलने कहा- 'राजन् ! आप युद्धके करके उनके जलमें डुबकी नहीं लगाता, उसको लगनेमुहानेपर संभलकर खड़े होइये। मैं श्रीरामका भक्त हूँ; वाला पाप मुझे ही लगे।' मुझे कोई युद्धमें जीत नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र-पदका यह कहकर पुष्कलने राजाके महान् वक्षःस्थलको, ही अधिकारी क्यों न हो।' पुष्कलका ऐसा वचन सुनकर जो किवाड़ोंके समान विस्तृत था निशाना बनाया और राजाओंमें अग्रगण्य वीरमणि उन्हें निरा बालक समझकर एक अग्निके समान तेजस्वी एवं तीक्ष्ण बाण छोड़ा। हँसने लगे, तत्पश्चात् उन्होंने अपना क्रोध प्रकट किया। किन्तु राजाने अपने बाणसे पुष्कलके उस बाणके दो राजाको कुपित जानकर रणोन्मत्त वीर भरतकुमारने उनकी टुकड़े कर डाले। उनमेंसे एक टुकड़ा तो भूमण्डलको छातीमें बीस तीखे बाणोंका प्रहार किया। उन बाणोंको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा और दूसरा