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पातालखण्ड ]
. अश्वका गात्र-स्तम्भ तथा एक ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार .
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डाला जाता है और वे वीर्य पीकर ही रहते हैं। जो लोग मनुष्योंके लिये सब उपायोंसे श्रेष्ठ है। वह पापियोंके सारे चोर, आग लगानेवाले, दुष्ट, जहर देनेवाले और पाप-पङ्कको धो डालती है। इस विषयमें कोई अन्यथा गाँवोंको लूटनेवाले हैं, वे महापातकी जीव 'सारमेयादन' विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।* जो भगवान्का नरकमें गिराये जाते हैं। जो पापराशिका संचय अपमान करता है, उसे गङ्गा भी नहीं पवित्र कर सकती। करनेवाला पुरुष झूठी गवाही देता या बलपूर्वक दूसरोका पवित्रसे पवित्र तीर्थ भी उसे पावन बनानेकी शक्ति नहीं धन छीन लेता है, वह पापी 'अवीचि' नामक नरकमें रखते। जो ज्ञानहीन होनेके कारण भगवान्के लीलानीचे सिर करके डाल दिया जाता है। उसमें महान् दुःख कीर्तनका उपहास करता है, उसको कल्पके अन्ततक भी भोगनेके पश्चात् वह पुनः अत्यन्त पापमयी योनिमें जन्म नरकसे छुटकारा नहीं मिलता। राजन् ! अब तुम जाओ लेता है। जो मूढ सुरापान करता है, उसे धर्मराजके दूत और घोड़ेको संकटसे छुड़ानेके लिये सेवकोंसहित गरम-गरम लोहेका रस पिलाते है। जो। अपनी विद्या भगवान्का चरित्र सुनाओ, जिससे अश्वमें पुनः चलनेऔर आचारके घमंडमें आकर गुरुजनोंका अनादर करता फिरनेकी शक्ति आ जाय। है, वह मनुष्य मृत्युके पश्चात् 'क्षार' नरकमें नीचे मुँह शेषजी कहते है-शौनकजीकी उपर्युक्त बात करके गिराया जाता है। जो लोग धर्मसे बहिष्कृत होकर सुनकर शत्रुघ्नको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे मुनिको प्रणाम विश्वासघात करते हैं, उन्हें अत्यन्त यातनापूर्ण 'शूलपोत' और परिक्रमा करके सेवकोंसहित चले गये। वहाँ जाकर नरकमें डाला जाता है। जो चुगली करके सब लोगोंको हनुमान्जीने घोड़ेके पास श्रीरघुनाथजीके चरित्रका वर्णन अपने वचनसे उद्वेगमें डाला करता है, वह 'दंदशूक' किया, जो बड़ी-से-बड़ी दुर्गतिका नाश करनेवाला है। नामक नरकमें पड़कर दंदशूको (सो) द्वारा इंसा जाता अन्तमें उन्होंने कहा- 'देव ! आप श्रीरामचन्द्रजीके है। राजन् ! इस प्रकार पापियोंके लिये अनेकों नरक है; कीर्तनके पुण्यसे अपने विमानपर सवार होइये और पाप करके वे उन्हीं में जाते और अत्यन्त भयङ्कर यातना स्वेच्छानुसार अपने लोकमें विचरण कीजिये। इस भोगते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीको कथा नहीं सुनी है कुत्सित योनिसे अब आपका छुटकारा हो जाय।' यह तथा दूसरोंका उपकार नहीं किया है, उनको नरकके वाक्य सुनकर देवताने कहा-'राजन् ! मैं श्रीरामचन्द्रजीभीतर सब तरहके दुःख भोगने पड़ते हैं। इस लोकमें भी का कीर्तन सुननेसे पवित्र हो गया। महामते ! अब मैं जिसको अधिक सुख प्राप्त है, उसके लिये वह अपने लोकको जा रहा हूँ आप मुझे आज्ञा दीजिये।' स्वर्ग कहलाता है तथा जो रोगी और दुःखी हैं, वे यह कहकर देवता विमानपर बैठे हुए स्वर्ग चले गये। नरकमें ही हैं।
उस समय यह दृश्य देखकर शत्रुघ्न और उनके दान-पुण्यमें लगे रहने, तीर्थ आदिका सेवन करने, सेवकोंको बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर, वह अश्व श्रीरघुनाथजीकी लीलाओंको सुनने अथवा तपस्या गात्रस्तम्भसे मुक्त होकर पक्षियोंसे भरे हुए उस उद्यानमें करनेसे पापोंका नाश होता है। हरिकीर्तनरूपी नदी ही सब ओर भ्रमण करने लगा।
* दानपुण्यप्रसंगेन सर्वेषामप्युपायानां
तीर्थादिक्रियया तथा । रामचारित्रसंश्रुत्या तपसा वा क्षयं ब्रजेत्॥ हरिकीर्तिधुनी नृणाम् । क्षालयेत् पापिना पटू नात्र कार्या विचारणा ॥ (४८।६५-६६)