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पातालखण्ड ]
. अश्वका गात्र-स्तम्ब तथा एक ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार .
सारा शरीर अकड़ गया? अब यहाँ क्या उपाय करना शत्रुनके इस प्रकार पूछनेपर परम बुद्धिमान् चाहिये, जिससे इसमें चलनेकी शक्ति आ जाय?' मुनिश्रेष्ठ शौनकने थोड़ी देरतक ध्यान किया। फिर एक __ सुमतिने कहा-स्वामिन् ! किन्हीं ऐसे ऋषि- ही क्षणमें सारा रहस्य समझमें आ गया। उनकी आँखें मुनिकी खोज करनी चाहिये, जो सब बातोंको जाननेमें आश्चर्यसे खिल उठी तथा वे दुःख और संशयमें पड़े हुए कुशल हो। मैं तो लोकमें होनेवाले प्रत्यक्ष विषयोंको ही राजा शत्रुघ्नसे बोले-राजन् ! मैं अश्वके गात्र-स्तम्भका जानता हूँ: परोक्षमें मेरी गति नहीं है।
कारण बताता हूँ, सुनो। गौड़ देशके सुरम्य प्रदेशमें, शेषजी कहते हैं-सुमतिकी यह बात सुनकर कावेरीके तटपर सात्त्विक नामका एक ब्राह्मण बड़ी भारी धर्मके ज्ञाता शत्रुघने अपने सेवकोंद्वारा ऋषिकी खोज तपस्या कर रहा था। वह एक दिन जल पीता, दूसरे दिन करायी। एक सेवक वहाँसे एक योजन दूर पूर्व दिशाकी हवा पीकर रहता और तीसरे दिन कुछ भी नहीं खाता
ओर गया। वहाँ उसे एक बहुत बड़ा आश्रम दिखायी था। इस प्रकार तीन-तीन दिनका व्रत लेकर वह समय दिया, जहाँके पशु और मनुष्य-सभी परस्पर वैर- व्यतीत करता था। उसका यह व्रत चल ही रहा था कि भावसे रहित थे। गङ्गाजीमें नान करनेके कारण उनके सबका विनाश करनेवाले कालने उसे अपने दाढ़ोंमें ले समस्त पाप दूर हो गये थे तथा वे सब-के-सब बड़े लिया। उस महान् व्रतधारी तपस्वीकी मृत्यु हो गयी। मनोहर दिखायी देते थे। वह शौनक मुनिका मनोहर तत्पश्चात् वह सात्त्विक नामका ब्राह्मण सब प्रकारके आश्रम था। उसका पता लगाकर सेवक लौट आया रत्नोसे विभूषित तथा सब तरहकी शोभासे सम्पन्न और विस्मित होकर उसने राजा शत्रुघ्नसे उस आश्रमका विमानपर बैठकर मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ जम्बू समाचार निवेदन किया। सेवककी बात सुनकर नामकी नदी बहती थी, जिसके किनारे तप और ध्यानमें अनुचरोंसहित शत्रुमको बड़ा हर्ष हुआ और वे हनुमान् संलग्न रहनेवाले ऋषि महर्षि निवास करते थे। वह तथा पुष्कल आदिके साथ ऋषिके आश्रमपर गये। वहाँ ब्राह्मण वहीं आनन्दमग्न होकर अपनी इच्छाके अनुसार जाकर उन्होंने मुनिके पापहारी चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम अप्सराओंके साथ विहार करने लगा। अभिमान और किया। बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा शत्रुघ्नको आया जान मदसे उन्मत्त होकर उसने वहाँ रहनेवाले ऋषियोंके शौनक मुनिने अर्ध्य, पाद्य आदि देकर उनका स्वागत प्रतिकूल बर्ताव किया। इससे रुष्ट होकर उन ऋषियोंने किया। उनके दर्शनसे मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। शाप दिया-'जा, तू राक्षस हो जा; तेरा मुख विकृत हो शत्रुघ्नजी सुखपूर्वक बैठकर जब विश्राम कर चुके तो जाय।' यह शाप सुनकर ब्राह्मणको बड़ा दुःख हुआ और मुनीश्वरने पूछा-'राजन् ! तुम किसलिये भ्रमण कर रहे उसने उन विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मणोंसे कहाहो? तुम्हारी यह यात्रा तो बड़ी दूरकी जान पड़ती है।' 'ब्रह्मर्षियो! आप सब लोग दयालु है; मुझपर कृपा मुनिकी यह बात सुनकर राजा शत्रुघ्नका शरीर हर्षसे कीजिये। तब उन्होंने उसपर अनुग्रह करते हुए पुलकित हो उठा। वे अपना परिचय देते हुए गद्गद कहा-“जिस समय तुम श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको अपने वाणीमें बोले-'महर्षे ! मेरा अश्व अकस्मात् एक वेगसे स्तब्ध कर दोगे, उस समय तुम्हें श्रीरामकी कथा फूलोंसे सुशोभित उद्यानमें चला गया। उसके भीतर एक सुननेका अवसर मिलेगा। उसके बाद इस भयङ्कर किनारेपर पहुँचते ही तत्काल उसका शरीर अकड़ गया। शापसे तुम्हारी मुक्ति हो जायगी।' मुनियोंके कथनानुसार इसके कारण हमलोग अपार दुःखके समुद्रमें डूब रहे हैं; उसीने यहाँ राक्षस होकर श्रीरघुनाथजीके अश्वको आप नौका बनकर हमें बचाइये। हमारे बड़े भाग्य थे, स्तम्भित किया है; अतः तुम कीर्तनके द्वारा घोड़ेको उसके जो दैवात् आपका दर्शन हुआ। घोड़ेकी इस अवस्थाका चंगुलसे छुड़ाओ।' । प्रधान कारण क्या है ? यह बतानेकी कृपा कीजिये।' मुनिका यह कथन सुनकर शत्रुवीरोंका दमन संध्यपु०१७