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• अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पापुराण
प्रहाद और विभीषणको देखो तथा अन्य रामभक्तोंपर भी सेवकोंसे पूछा-'यज्ञ-सम्बन्धी अश्व कहाँ है?' वे दृष्टिपात करो; वे कभी अपनी स्थितिसे भ्रष्ट नहीं होते। बोले-'महाराज ! हमलोग पहचानते तो नहीं, परन्तु जो दुष्ट श्रीरामकी निन्दा करते हैं, उन्हें यमराजके दूत कुछ योद्धा आये थे, जो हमें हटाकर घोड़ेको साथ ले कालपाशसे बाँधकर लोहेके मुद्गरोंसे पीटते हैं। तुम इस नगरमें गये हैं। उनकी बात सुनकर शत्रुघ्रने ब्राह्मण हो, इसलिये तुम्हें शारीरिक दण्ड नहीं दे सकता। सुमतिसे कहा-'मन्त्रिवर! यह किसका नगर है? मेरे सामनेसे जाओ, चले जाओ; नहीं तो तुम्हारी ताड़ना कौन इसका स्वामी है, जिसने मेरे अश्वका अपहरण करुंगा।' महाराज सुरथके ऐसा कहनेपर उनके सेवक किया है?' मन्त्री बोले-'राजन् ! यह परम मनोहर मुनिको हाथसे पकड़कर निकाल देनेको उद्यत हुए। तब नगर कुण्डलपुरके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें महाबली यमराजने अपना विश्ववन्दित रूप धारण करके राजासे धर्मात्मा राजा सुरथ निवास करते हैं। वे सदा धर्ममें लगे कहा-'श्रीरामभक्त ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी रहते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके युगल चरणोंके उपासक हैं। जो इच्छा हो, माँगो। सुव्रत | मैंने बहुत-सी बातें बनाकर श्रीहनुमान्जीकी भाँति ये भी मन, वाणी और क्रियाद्वारा तुम्हें प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न किया, किन्तु तुम भगवानको सेवामें ही तत्पर रहते हैं।' श्रीरामचन्द्रजीको सेवासे विचलित नहीं हुए। क्यों न हो, शत्रुघ्न बोले-यदि इन्होंने ही श्रीरघुनाथजीके तुमने साधु पुरुषोंका सेवन-महात्माओंका सत्सङ्ग अश्वका अपहरण किया हो तो इनके साथ कैसा बर्ताव किया है।' यमराजको संतुष्ट देखकर राजा सुरथने करना चाहिये? कहा-'धर्मराज ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यह सुमतिने कहा-महाराज ! राजा सुरथके पास उत्तम वर प्रदान कीजिये-जबतक मुझे श्रीराम न मिले, कोई बातचीत करनेमें कुशल दूत भेजना चाहिये। तबतक मेरी मृत्यु न हो। आपसे मुझे कभी भय न हो।' यह सुनकर शत्रुघ्नने अङ्गदसे विनययुक्त तब यमराजने कहा-'राजन् ! तुम्हारा यह कार्य सिद्ध वचन कहा-'बालिकुमार ! यहाँसे पास ही जो राजा होगा। श्रीरघुनाथजी तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।' यों सुरथका विशाल नगर है, वहाँ दूत बनकर जाओ और कहकर धर्मराजने हरिभक्तिपरायण राजाको प्रशंसा की राजासे कहो कि आपने जानकर या अनजानमें यदि और वहाँसे अदृश्य होकर वे अपने लोकको चले गये। श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ लिया हो तो उसे लौटा
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें लगे रहनेवाले दे अथवा वीरोंसे भरे हुए युद्धक्षेत्रमें पधारे।' अङ्गदने धर्मात्मा राजाने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपने सेवकोंसे 'बहुत अच्छा' कहकर शत्रुघ्नकी आज्ञा स्वीकार की और कहा-'मैंने महाराज श्रीरामचन्द्रजीके अश्वको पकड़ा राजसभामें गये। वहाँ उन्होंने राजा सुरथको देखा, जो है; इसलिये तुम सब लोग युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। वीरोंके समूहसे घिरे हुए थे। उनके मस्तकपर तुलसीकी मैं जानता हूँ, तुमने युद्ध-कलामें पूरी प्रवीणता प्राप्त की मञ्जरी थी और जिलासे श्रीरामचन्द्रजीका नाम लेते हुए वे है।' महाराजकी ऐसी आज्ञा पाकर उनके सभी महाबली अपने सेवकोंको उन्हींकी कथा सुना रहे थे। राजा भी योद्धा थोड़ी ही देरमें तैयार हो गये और शीघ्रतापूर्वक मनोहर शरीरधारी वानरको देखकर समझ गये कि ये दरबारके सामने उपस्थित हुए। राजाके दस वीर पुत्र थे, शत्रुघ्नके दूत है; तथापि बालिकुमारसे इस प्रकार, जिनके नाम थे-चम्पक, मोहक, रिपुञ्जय, दुर्वार, बोले-'वानरराज ! बताओ, तुम किसलिये और कैसे प्रतापी, बलमोदक, हर्यक्ष, सहदेव, भूरिदेव तथा यहाँ आये हो ! तुम्हारे आनेका सारा कारण जानकर मैं असुतापन। ये सभी अत्यन्त उत्साहपूर्वक तैयार हो उसके अनुसार कार्य करूंगा।' यह सुनकर वानरराज युद्धक्षेत्रमें जानेकी इच्छा प्रकट करने लगे।
अङ्गद मन-ही-मन बहुत विस्मित हुए और इधर शत्रुघ्नने शीघ्रताके साथ आकर अपने श्रीरामचन्द्रजीकी उपासनामें लगे रहनेवाले उन नरेशसे