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. अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
हाहाकर करके चीख उठे और हनुमानजीने चम्पकके गये। फिर अत्यन्त क्रोध भर उन्होंने राजाका रथ पकड़ पाशमें बँधे हुए पुष्कलको छुड़ा लिया। लिया और उसे लेकर बड़े वेगसे आकाशमें उड़ गये।
चम्पकको पृथ्वीपर पड़ा देख बलवान् राजा सुरथ ऊपर जाकर बहुत दूरसे उन्होंने रथको छोड़ दिया और पुत्रके दुःखसे व्याकुल हो उठे और रथपर सवार हो वह रथ धरतीपर गिरकर क्षणभरमें चकनाचूर हो गया। हनुमान्जीके पास गये। वहां पहुंचकर उन्होंने कहा- राजा दूसरे रथपर जा चढ़े और बड़े वेगसे हनुमान्जीका 'कपिश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो! तुम्हारा बल और पराक्रम सामना करनेके लिये आये। किन्तु क्रोधमें भरे हुए महान् हैं; जिसके द्वारा राक्षसोंकी पुरी लझमें तुमने पवनकुमारने तुरंत ही उस रथको भी चौपट कर डाला। श्रीरघुनाथजीके बड़े-बड़े कार्य सिद्ध किये हैं। निःसन्देह इस प्रकार उन्होंने राजाके उनचास रथ नष्ट कर दिये। तुम श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंके सेवक और भक्त हो। उनका यह पराक्रम देखकर राजाके सैनिकों तथा स्वयं तुम्हारी वीरताके लिये क्या कहना है । तुमने मेरे बलवान् राजाको भी बड़ा विस्मय हुआ। वे कुपित होकर पुत्र चम्पकको रण-भूमिमें गिरा दिया है। कपीश्वर ! अय बोले-'वायुनन्दन ! तुम धन्य हो ! कोई भी पराक्रमी तुम सावधान हो जाओ। मैं इस समय तुम्हे बाँधकर ऐसा कर्म न तो कर सकता है और न करेगा। अब तुम अपने नगरमें ले जाऊँगा । मैंने बिलकुल सत्य कहा है।' एक क्षणके लिये ठहर जाओ, जबतक कि मैं अपने
हनुमानजीने कहा-राजन् ! तुम श्रीरघुनाथजीके धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ा रहा हूँ। तुम वायुदेवताके सुपुत्र चरणोंका चिन्तन करनेवाले हो और मैं भी उन्हींका श्रीरघुनाथजीके चरण-कमलोंके चञ्चरीक हो [अतः सेवक हैं। यदि मुझे बाँध लोगे तो मेरे प्रभु बलपूर्वक मेरी बात मान लो] ।' ऐसा कहकर रोषमें भरे हुए राजा तुम्हारे हाथसे छुटकारा दिलायेंगे। वीर ! तुम्हारे मनमे सुरथने अपने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और भयङ्कर जो बात है, उसे पूर्ण करो। अपनी प्रतिज्ञा सत्य करो। बाणमें पाशुपत अस्त्रका सन्धान किया। लोगोंने देखा वेद कहते हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करता है, उसे हनुमान्जी पाशुपत अस्त्रसे बँध गये। किन्तु दूसरे ही कभी दुःख नहीं होता।
क्षण उन्होंने मन-ही-मन भगवान् श्रीरामका स्मरण करके शेषजी कहते हैं-उनके ऐसा कहनेपर राजा उस बन्धनको तोड़ डाला और सहसा मुक्त होकर वे सुरथने पवनकुमारकी बड़ी प्रशंसा की और सानपर राजासे युद्ध करने लगे। सुरथने जब उन्हें बन्धनसे मुक्त चढ़ाकर तेज किये हुए भयंकर बाणोंद्वारा उन्हें अच्छी देखा तो महाबलवान् मानकर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। तरह घायल किया। वे बाण हनुमान्जीके शरीरसे रक्त परन्तु महावीर पवनकुमार उस अस्त्रको हँसते-हँसते निकाल रहे थे तो भी उन्होंने उनकी परवा न की और निगल गये। यह देख राजाने श्रीरघुनाथजीका स्मरण राजाके धनुषको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर तोड़ किया। उनका स्मरण करके उन्होंने अपने धनुषपर डाला। हनुमान्जीके द्वारा अपने धनुषको प्रत्यञ्चासहित रामास्त्रका प्रयोग किया और हनुमानजीसे कहाटूटा हुआ देख राजाने दूसरा धनुष हाथमे लिया। किन्तु 'कपिश्रेष्ठ ! अब तुम बँध गये।' हनुमान्जी बोलेपवनकुमारने उसे भी छीनकर क्रोधपूर्वक तोड़ डाला। 'राजन् ! क्या करूँ, तुमने मेरे स्वामीके अस्वसे ही मुझे इस प्रकार उन्होंने राजाके अस्सी धनुष खण्डित कर दिये बाँधा है, किसी दूसरे प्राकृत अस्त्रसे नहीं; अतः मैं तथा क्षण-क्षणपर महान् रोषमें भरकर वे बारम्बार गर्जना उसका आदर करता हूँ। अब तुम मुझे अपने नगरमें ले करते थे। तब राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने चलो। मेरे प्रभु दयाके सागर हैं; वे स्वयं ही आकर मुझे भयंकर शक्ति हाथमें ली। उस शक्तिसे आहत होकर छुड़ायेंगे।' हनुमान्जी गिर पड़े, किन्तु थोड़ी ही देरमें उठकर खड़े हो हनुमान्जीके बाँधे जानेपर पुष्कल कुपित हो