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अर्थयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
नित्यकर्मसे निवृत्त होकर वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक सुवर्णदानसे संतुष्ट किया। उसके बाद वे राजसभायें गये। श्रीरामचन्द्रजी सारी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। अतः सब लोग उनको प्रणाम करनेके लिये वहाँ गये। लक्ष्मणने राजाके मस्तकपर छत्र लगाया और भरत शत्रुघ्नने दो चंवर धारण किये। वसिष्ठ आदि महर्षि तथा सुमन्त्र आदि न्यायकर्ता मन्त्री भी वहाँ उपस्थित हो भगवान् की उपासना करने लगे।
इसी समय वे गुप्तचर अच्छी तरह सज-धजकर सभामें बैठे हुए महाराजको नमस्कार करनेके लिये आये। उत्तम बुद्धिवाले महाराज श्रीरामने [सभाविसर्जनके पश्चात् ] उन सभी गुप्तचरों को एकान्तमें बुलाकर पूछा- तुमलोग सच सच बताओ। नगरके लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं? मेरी धर्मपत्नीके विषयमें उनकी कैसी धारणा है ? तथा मेरे मन्त्रियोंका बर्ताव थे लोग कैसा बतलाते हैं ?' गुप्तचर बोले5- नाथ! आपकी कीर्ति इस भूमण्डलके सब लोगोंको पवित्र कर रही है। हमलोगोंने घर-घरमें प्रत्येक पुरुष और स्त्रीके मुखसे आपके यशका
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
बखान सुना है। राजा सगर आदि आपके अनेकानेक पूर्वज अपने मनोरथको सिद्ध करके कृतार्थ हो चुके हैं; किन्तु उनकी भी ऐसी कीर्ति नहीं छायी थी, जैसी इस समय आपकी है। आप जैसे स्वामीको पाकर सारी प्रजा कृतार्थ हो रही है। उन्हें न तो अकाल मृत्युका कष्ट है और न रोग आदिका भय। आपकी विस्तृत कीर्ति सुनकर ब्रह्मादि देवताओंको बड़ी लज्जा होती है [ क्योंकि आपके सुयशसे उनका यश फीका पड़ गया है] । इस प्रकार आपकी कीर्ति सर्वत्र फैलकर इस समय जगत्के सब लोगोंको पावन बना रही है। महाराज ! हम सभी गुप्तचर धन्य हैं कि क्षण-क्षणमें आपकी मनोहर मुखका अवलोकन करते हैं।
उन गुप्तचरोंके मुखसे इस तरहकी बातें सुनकर श्रीरघुनाथजीने अन्तमें एक दूसरे दूतपर दृष्टि डाली; उसके मुखकी आभा कुछ और ढंगकी हो रही थी। उन्होंने पूछा - 'महामते ! तुम सच सच बताओ । लोगोंके मुखसे जो कुछ जैसा भी सुना हो, वह ज्यों-का-त्यों सुना दो; अन्यथा तुम्हें पाप लगेगा ।'
गुप्तचरने कहा - स्वामिन्! राक्षसोंके वध आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली आपकी सभी कथाओंका सर्वत्र गान हो रहा है- केवल एक बातको छोड़कर। आपकी धर्मपत्नीने जो राक्षसके घरमें कुछ कालतक निवास किया था, उसके सम्बन्धमें लोगोंका अच्छा भाव नहीं है। गत आधी रातकी बात है - एक धोबीने अपनी पत्त्रीको, जो दिनमें कुछ देरतक दूसरेके घरमें रहकर आयी थी, धिक्कारा और मारा। यह देखकर उसकी माता बोली- 'बेटा! यह बेचारी निरपराध है, इसे क्यों मारते हो ? तुम्हारी स्त्री है, रख लो; निन्दा न करो, मेरी बात मानो।' तब धोबी कहने लगा- - मैं राजा राम नहीं हूँ कि इसे रख लूँ। उन्होंने राक्षसके घरमें रही हुई सीताको फिरसे ग्रहण कर लिया, मैं ऐसा नहीं कर सकता। राजा समर्थ होता है, उसका किया हुआ सारा काम न्याययुक्त ही माना जाता है। दूसरे लोग पुण्यात्मा हों, तो भी उनका कार्य अन्याययुक्त ही समझ लिया जाता है।' उसने बारंबार इस बातको दुहराया कि 'मैं राजा राम नहीं हूँ।'