________________
भूमिखण्ड ]
.
सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रा से लौटना और देवताओंसे वरदान प्राप्त करना •
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं— राजन् ! कृकल वैश्य सब तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके अपने साथियोंके साथ बड़े आनन्दसे घरकी ओर लौटे। वे सोचते थे— मेरा संसारमें जन्म लेना सफल हो गया; मेरे सब पितर स्वर्गको चले गये होंगे। वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि एक दिव्य रूपधारी विशालकाय पुरुष उनके पिता पितामहोंको प्रत्यक्षरूपसे बाँधकर सामने प्रकट हुए और बोले— 'वैश्य! तुम्हारा पुण्य उत्तम नहीं है। तुम्हें तीर्थ- - यात्राका फल नहीं मिला। तुमने व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया।' यह सुनकर कृकल वैश्य दुःखसे पीड़ित हो गये। उन्होंने पूछा- 'आप कौन हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं? मेरे पिता पितामह क्यों बाँधे गये हैं? मुझे तीर्थका फल क्यों नहीं मिला ?"
प्राप्त करना चाहते हैं। आप कौन हैं, जो निडर होकर दूतीके साथ यहाँ आये हैं ? सत्य, धर्म, पुण्य और ज्ञान आदि बलवान् पुत्र मेरे तथा मेरे स्वामीके सहायक हैं। वे सदा मेरी रक्षामें तत्पर रहते हैं। मैं नित्य सुरक्षित हूँ। इन्द्रिय- संयम और मनोनिग्रहमें तत्पर रहती हूँ। साक्षात् शचीपति इन्द्र भी मुझे जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। यदि महापराक्रमी कामदेव भी आ जाय तो मुझे कोई परवा नहीं है; क्योंकि मैं अनायास ही सतीत्वरूपी कवचसे सदा सुरक्षित हूँ। मुझपर कामदेवके बाण व्यर्थ हो जायेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उलटे महाबली धर्म आदि तुम्हींको मार डालेंगे। दूर हटो, भाग जाओ, मेरे सामने न खड़े होओ। यदि मना करनेपर भी खड़े 201 * सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
2015
F
יה
-
२७९
रहोगे तो जलकर खाक हो जाओगे। मेरे स्वामीकी अनुपस्थितिमें यदि तुम मेरे शरीरपर दृष्टि डालोगे तो जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें भस्म कर डालूंगी। *
सुकलाने जब यह कहा, तब तो उस सतीके भयंकर शापके डरसे व्याकुल हो सब लोग जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये । इन्द्र आदिने अपने-अपने लोककी राह ली। सबके चले जानेपर पुण्यमयी पतिव्रता सुकला पतिका ध्यान करती हुई अपने घर लौट आयी। वह घर पुण्यमय था। वहाँ सब तीर्थ निवास करते थे। सम्पूर्ण यज्ञोंकी भी वहाँ उपस्थिति थी। राजन् ! पतिको ही देवता माननेवाली वह सती अपने उसी घरमें आकर रहने लगी।
********
* अहं रक्षापरा नित्यं दमशान्तिपरायणा न मां जेतुं समर्थच अपि साक्षाच्छ्चीपतिः ॥ यदि वा मन्मथो वापि समागच्छति वीर्यवान्। दंशिताहं सदा सत्यमल्याकष्टेन सर्वदा ॥ निरर्थकास्तस्य बाणा भविष्यन्ति न संशयः । त्वामेवं हि हनिष्यन्ति धर्माद्यास्ते महाबलाः ॥ दूरं गच्छ पलायस्व नात्र तिष्ठ ममाग्रतः । वार्यमाणो यदा तिष्ठेर्भस्मीभूतो भविष्यसि ॥ भर्त्रा बिना निरीक्षेत मम रूपं यदा भवान्। यथा दारू दहेद्वह्निस्तथा धक्ष्यामि नान्यथा ॥
धर्मने कहा- जो धार्मिक आचार और उत्तम व्रतका पालन करनेवाली, श्रेष्ठ गुणोंसे विभूषित, पुण्यमें अनुराग रखनेवाली तथा पुण्यमयी पतिव्रता पत्नीको अकेली छोड़कर धर्म करनेके लिये बाहर जाता है, उसका किया हुआ सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो सब प्रकारके सदाचारमे संलग्र रहनेवाली प्रशंसाके योग्य आचरणवाली, धर्मसाधनमें तत्पर सदा पातिव्रत्यका पालन करनेवाली, सब बातोंको जाननेवाली तथा ज्ञानको अनुरागिणी है, ऐसी गुणवती, पुण्यवती और महासती नारी जिसकी पत्नी हो, उसके घरमें सर्वदा देवता निवास करते हैं। पितर भी उसके घरमें रहकर निरन्तर उसके यशकी कामना करते रहते हैं। गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ,
(५८ । ३२ – ३६ )
لباس