________________ पातालखण्ड ] * शत्रुनका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवनका सुकन्यासे ब्याह - 439 . . . निवास करती है। महामुनि च्यवन वे ही हैं, जिन्होंने दुष्टात्मा ! तू सर्वभक्षी हो जा (पवित्र, अपवित्र-सभी मनुपुत्र शतिके महान् यज्ञमें इन्द्रका मान भङ्ग किया वस्तुओंका आहार कर)।' यह शाप सुनकर अग्निदेवको और अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग दिया था। बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने मुनिके चरण पकड़ लिये और शत्रुघ्नने पूछा-मन्त्रिवर ! महर्षि च्यवनने कब कहा-प्रभो ! तुम दयाके सागर हो / महामते ! मुझपर अश्विनीकुमारोको देवताओंकी पङ्क्तिमें बिठाकर उन्हें अनुग्रह करो। धार्मिकशिरोमणे ! मैंने झूठ बोलनेके यज्ञका भाग अर्पण किया था? तथा देवराज इन्द्रने उस भयसे उस राक्षसको आपकी पत्नीका पता बता दिया था, महान् यज्ञमें क्या किया था? इसलिये मुझपर कृपा करो।' सुमतिने कहा-सुमित्रानन्दन ! ब्रह्माजीके वंशमें अग्निकी प्रार्थना सुनकर तपस्वी मुनि दयासे द्रवित महर्षि भृगु बड़े विख्यात महात्मा हुए हैं। एक दिन हो गये और उनपर अनुग्रह करते हुए इस प्रकार सन्ध्याके समय समिधा लानेके लिये वे आश्रमसे दूर बोले-'अग्ने! तुम सर्वभक्षी होकर भी पवित्र ही चले गये थे। उसी समय दमन नामका एक महाबली रहोगे।' तत्पश्चात् परम मङ्गलमय विप्रवर भृगुने स्रान राक्षस उनके यज्ञका नाश करनेके लिये आया और उच्च आदिसे पवित्र हो हाथमें कुश लेकर गर्भसे गिरे हुए स्वरसे अत्यन्त भयङ्कर वचन बोला-'कहाँ है वह अपने पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार किया। उस समय अधम मुनि और कहाँ है उसकी पापरहित पली?' वह सम्पूर्ण तपस्वियोंने गर्भसे च्युत होनेके कारण उस रोषमें भरकर जब बारम्बार इस प्रकार कहने लगा तो बालकका नाम च्यवन रख दिया। भृगु-कुमार च्यवन अग्निदेवताने अपने ऊपर राक्षससे भय उपस्थित जानकर शुरूपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाको भाँति धीर-धीरे बढ़ने मुनिकी पत्नीको उसे दिखा दिया / वह सती-साध्वी नारी लगे। कुछ बड़े हो जानेपर वे तपस्या करनेके लिये गर्भवती थी। राक्षसने उसे पकड़ लिया। बेचारी अबला जगत्को पवित्र करनेवाली नर्मदा नदीके तटपर गये। कुररीकी भाँति विलाप करने लगी-'महर्षि भृगु ! रक्षा वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षांतक तपस्या की। करो, पतिदेव ! बचाओ, प्राणनाथ ! तपोनिधे !! मेरी ह रक्षा करो।' इस प्रकार वह आर्तभावसे पुकार रही थी, तथापि राक्षस उसे लेकर आश्रमसे बाहर चला गया और दुष्टताभरी बातोंसे महात्मा भृगुकी उस पतिव्रता पत्नीको अपमानित करने लगा। उस समय महान् भयसे त्रस्त होकर वह गर्भ मुनिपत्नीके पेटसे गिर गया। उस नवजात शिशुके नेत्र प्रज्वलित हो रहे थे, मानो सतीके शरीरसे अग्निदेव ही प्रकट हुए हों। उसने राक्षसकी ओर देखकर कहा-'ओ दुष्ट ! अब तू यहाँसे न जा, अभी जलकर भस्म हो जा। सतीका स्पर्श करनेके कारण तेरा कल्याण न होगा।' बालकके इतना कहते ही वह राक्षस गिर पड़ा और तुरंत जलकर राखका ढेर हो गया। तब माता अपने बच्चेको गोदमें लेकर उदास मनसे आश्रमपर आयी। महर्षि भृगुको जब मालूम हुआ कि यह सब अग्निदेवकी ही करतूत है तो वे क्रोधसे व्याकुल हो उठे और शाप देते हुए बोले-'शत्रुको घरका भेद बतानेवाले