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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
श्रीरामका स्मरण करके परमगतिको प्राप्त कर लेता है। अष्टमीके अर्धचन्द्रकी सुषमा धारण करता है । मस्तकपर फिर तुम्हारे-जैसे वेद-शास्त्रपरायण पुरुषोंके लिये तो काले-काले धुंघराले केश शोभा पा रहे हैं। मुकुटकी कहना ही क्या है ? यह सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका रहस्य मणियोंसे उनका मुख-मण्डल उद्भासित हो रहा है। हैं, जिसे मैंने तुमपर प्रकट कर दिया। अब जैसा तुम्हारा कानोंमें पहने हुए मकराकार कुण्डल अपने सौन्दर्यसे विचार हो, वैसा ही करों। एक ही देवता हैं-श्रीराम, भगवान्की शोभा बढ़ा रहे हैं। मूंगेके समान सुन्दर एक ही व्रत है-उनका पूजन, एक ही मन्त्र है- कान्ति धारण करनेवाले लाल-लाल ओठ बड़े मनोहर उनका नाम, तथा एक ही शास्त्र है-उनकी स्तुति । जान पड़ते है। चन्द्रमाकी किरणोंसे होड़ लगानेवाली अंतः तुम सब प्रकारसे परममनोहर श्रीरामचन्द्रजीका दन्तपङ्क्तियों तथा जपा-पुष्पके समान रंगवाली जिह्वाके भजन करो; इससे तुम्हारे लिये यह महान् संसार-सागर कारण उनके श्रीमुखका सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। गायके खुरके समान तुच्छ हो जायगा।'*
शङ्खके आकारवाला कमनीय कण्ठ, जिसमें ऋक् आदि महर्षि लोमशका वचन सुनकर मैंने पुनः प्रश्न चारों वेद तथा सम्पूर्ण शास्त्र निवास करते हैं, उनके किया-'मुनिवर ! मनुष्योंको भगवान् श्रीरामका ध्यान श्रीविग्रहको सुशोभित कर रहा है। श्रीरघुनाथजी सिंहके
और पूजन कैसे करना चाहिये?' यह सुनकर उन्होंने समान ऊँचे और मांसल कंधेवाले हैं। वे केयूर एवं स्वयं श्रीरामका ध्यान करते हुए मुझे सब बातें कड़ोंसे विभूषित विशाल भुजाएँ धारण किये हुए हैं। बतायों-'साधकको इस प्रकार ध्यान करना चाहिये; उनकी दोनों बाहें अंगूठीमें जड़े हुए हीरेकी शोभासे रमणीय अयोध्या नगरी परम चित्र-विचित्र मण्डपोंसे देदीप्यमान और घुटनोंतक लंबी हैं। विस्तृत वक्षःस्थल शोभा पा रही है। उसके भीतर एक कल्पवृक्ष है, जिसके लक्ष्मीके निवाससे शोभा पा रहा है। श्रीवत्स आदि मूलभागमें परम मनोहर सिंहासन विराजमान है। वह चिह्नोंसे अङ्कित होनेके कारण भगवान् अत्यन्त मनोहर सिंहासन बहुमूल्य मरकत-मणि, सुवर्ण तथा नीलमणि जान पड़ते हैं। महान् उदर, गहरी नाभि तथा सुन्दर आदिसे सुशोभित है और अपनी कान्तिसे गहन कटिभाग उनकी शोभा बढ़ाते हैं। रत्नोंकी बनी हुई अन्धकारका नाश कर रहा है। वह सब प्रकारकी करधनीके कारण श्रीअङ्गोंकी सुषमा बहुत बढ़ गयी है। मनोभिलषित समृद्धियोंको देनेवाला है। उसके ऊपर निर्मल ऊरु और सुन्दर घुटने भी सौन्दर्यवृद्धिमें सहायक भक्तोंका मन मोहनेवाले श्रीरघुनाथजी बैठे हुए हैं। उनका हो रहे हैं। भगवान्के चरण, जिनका योगीलोग ध्यान दिव्य विग्रह दूर्वादलके समान श्याम है, जो देवराज करते हैं, बड़े कोमल हैं। उनके तलवेमें वज्र, अङ्कश इन्द्रके द्वारा पूजित होता है। भगवान्का सुन्दर मुख और यव आदिकी उत्तम रेखाएँ हैं। उन युगल चरणोंसे अपनी शोभासे राकाके पूर्ण चन्द्रकी कमनीय कान्तिको श्रीरघुनाथजीके विग्रहकी बड़ी शोभा हो रही है। भी तिरस्कृत कर रहा है। उनका तेजस्वी ललाट 'इस प्रकार ध्यान और स्मरण करके तुम संसार
* रामानास्ति परो देवो रामानास्ति परं व्रतम् । न हि रामात्परो योगो न हि रामात्परो मखः ॥ तं स्मृत्वा चैव जप्त्वा च पूजयित्वा नरः पदम् । प्राप्नोतिः परमामृद्धिमैहिकामुष्णिकी तथा ॥ संस्मृतो मनसा ध्यातः सर्वकामफलपदः । ददाति परमा भक्ति संसाराम्भोधितारिणीम् ॥ भ्रपाकोऽपि हि संस्मृत्य रामं याति पगं गतिम् ।ये वेदशास्वनिरतास्त्वादशास्तत्र किं पुनः ।। सर्वेषा वेदशास्त्राणां रहस्य ते प्रकाशितम्। समाचर तथा त्वं वै यथा स्याते मनीषितम्॥ एको देवो रामचन्द्रो वतमेकं तदर्चनम् । मन्त्रोऽप्यका तन्नाम शास्त्रं तद्धयव तत्स्तुतिः ॥ तस्मात्सर्वात्पना रामचन्द्र भज मनोहरम् । यथा गोष्पदवतुष्छो भवेत्ससारसागरः ॥ (३५४४६-५२) * अयोध्यानगरे रम्ये चित्रमण्डपशोभिते । ध्यायेत्कल्पतरार्मूल सर्वकामसमृद्धिदम्॥