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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ।
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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मारकर परमपवित्र जनककिशोरी सीताको ग्रहण किया, प्रसादसे मैं उनके चरणकमलोंको भी प्राप्त करूंगा।' जिन्हें राक्षसने बहुत कष्ट पहुँचाया था। जानकीजीको ऐसा कहकर मैंने मुनीश्वरको प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे पाकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे लङ्कासे चले गये। उन्हींकी कृपासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीके लौटे। वैशाख शुक्ल चतुर्थीको पुष्पकविमानपर आरूढ़ चरणोंकी पूजन-विधि भी प्राप्त हुई है। तबसे मैं सदा ही होकर वे आकाशमार्गसे पुनः अयोध्यापुरीकी ओर चले। श्रीरामके चरणोंका चिन्तन करता हूँ तथा आलस्य वैशाख शुक्ल पञ्चमीको भगवान् श्रीराम अपने छोड़कर बारम्बार उन्हींके चरित्रका गान करता रहता हूँ। दल-बलके साथ भरद्वाजमुनिके आश्रमपर आये और उनके गुणोंका गान मेरे चित्तको लुभाये रहता है। मैं चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर षष्ठीको नन्दिग्राममें जाकर उसके द्वारा दूसरे लोगोंको भी पवित्र किया करता हूँ तथा भरतसे मिले। फिर सप्तमीको अयोध्यापुरीमें मुनिके वचनोंका बारम्बार स्मरण करके भगवत्-दर्शनकी श्रीरघुनाथजीका राज्याभिषेक हुआ। मिथिलेशकुमारी उत्कण्ठासे पुलकित हो उठता हूँ। इस पृथ्वीपर मैं धन्य सीताको अधिक दिनोंतक रामसे अलग होकर रावणके हैं कृतकृत्य हूँ और परम सौभाग्यशाली हूँ; क्योंकि मेरे यहाँ रहना पड़ा था। बयालिसवें वर्षकी उपमें हृदयमें श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको देखनेकी जो श्रीरामचन्द्रजीने राज्य ग्रहण किया, उस समय सीताकी अभिलाषा है, वह निश्चय ही पूर्ण होगी। अतः सब अवस्था तैतीस वर्षकी थी। रावणका संहार करनेवाले प्रकारसे परम मनोहर श्रीरामचन्द्रजीका ही भजन करना भगवान् श्रीराम चौदह वर्षेकि बाद पुनः अपनी पुरी चाहिये। संसार-समुद्रके पार जानेकी इच्छासे सब अयोध्यामें प्रविष्ट होकर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् वे लोगोंको श्रीरघुनाथजीकी ही वन्दना करनी चाहिये।* भाइयोंके साथ राज्यकार्य देखने लगे। श्रीरघुनाथजीके राज्य करते समय ही अगस्त्यजी, जो एक अच्छे वक्ता हैं तथा जिनकी उत्पत्ति कुम्भसे हुई है, उनके पास पधारेंगे। उनके कहनेसे श्रीरघुनाथजी अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। सुव्रत ! भगवान्का वह यज्ञसम्बन्धी अश्व तुम्हारे आश्रमपर आवेगा तथा उसकी रक्षा करनेवाले योद्धा भी बड़े हर्षके साथ तुम्हारे आश्रमपर पधारेंगे। उनके सामने तुम श्रीरामचन्द्रजीकी मनोहर कथा सुनाओगे तथा उन्हीं लोगोंके साथ अयोध्यापुरीको भी जाओगे। द्विजश्रेष्ठ ! अयोध्यामें कमलनयन श्रीरामका दर्शन करके तुम तत्काल ही संसारसागरसे पार हो जाओगे।'
मुनिश्रेष्ठ लोमश सर्वज्ञ हैं; उन्होंने मुझसे उपर्युक्त बातें कहकर पूछा-'आरण्यक! तुम्हें अपने कल्याणके लिये और क्या पूछना है?' तब मैंने उनसे कहा-'महर्षे ! आपकी कृपासे मुझे भगवान् श्रीरामके अद्भुत चरित्रका पूर्ण ज्ञान हो गया। अब आपहीके
* धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं सभाम्योऽहं महीतले । रामचन्द्रपदाम्भोजदिदृक्षा मे भविष्यति ॥ तस्मात्सर्वात्मना रामो भजनीयो मनोहरः । वन्दनीयो हि सर्वेषां संसाराब्धितितीर्षया ।। (३६ । ८९-९०)