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पातालखण्ड ]
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देवपुरके राजकुमार रुक्माङ्गदद्वारा अश्वका अपहरण
बुद्धिमान् थे। पुत्रकी बात सुनकर उन्होंने उसके कार्यकी प्रशंसा नहीं की। सोचा कि 'यह घोड़ा लेकर चुपकेसे चला आया है। इसका यह कार्य तो चोरके समान है।' अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् शङ्कर राजाके इष्टदेव थे। उनसे राजाने सारा हाल कह सुनाया।
तब भगवान् शिवने कहा- राजन् ! तुम्हारे पुत्रने बड़ा अद्भुत काम किया है। यह परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीरामचन्द्रके महान् अश्वको हर लाया है, जिनका मैं अपने हृदयमें ध्यान करता हूँ, जिहासे जिनके नामका उच्चारण करता हूँ, उन्हीं श्रीरामके यज्ञ सम्बन्धी अश्वका तुम्हारे पुत्रने अपहरण किया है। परन्तु इस युद्धक्षेत्रमें एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि हमलोग भक्तोंद्वारा सेवित श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका दर्शन कर सकेंगे। परन्तु अब हमें अश्वकी रक्षाके लिये महान् प्रयत्न करना होगा। इतनेपर भी मुझे संदेह है कि शत्रुघ्रके सैनिक मेरे द्वारा रक्षा किये जानेपर भी इसे बलपूर्वक पकड़ ले जायेंगे। इसलिये महाराज [ मैं तो यही सलाह दूंगा कि ] तुम विनीत होकर जाओ और राज्यसहित इस सुन्दर अश्वको भगवान्की सेवामें अर्पण करके उनके चरणोंका दर्शन करो।
वीरमणि बोले- भगवन्! क्षत्रियोंका यह धर्म है कि वे अपने प्रतापकी रक्षा करें, अतः हर एक मानी पुरुषके लिये अपने प्रतापकी रक्षा करना कर्तव्य है; इसके लिये उसे अपनी शक्तिभर पराक्रम करना चाहिये। आवश्यकता हो तो शरीरको भी होम देना चाहिये। सहसा किसीकी शरणमें जानेसे शत्रु उपहास करते हैं। वे कहते हैं— 'यह कायर है, राजाओंमें अधम है, क्षुद्र है। इस नीचने भयसे विह्वल होकर अनार्यपुरुषोंकी भाँति शत्रुके चरणोंमें मस्तक झुकाया है।' अतः अब युद्धका अवसर उपस्थित हो गया है। इस समय जैसा उचित हो, वही आप करें। कर्तव्यका विचार करके आपको अपने इस भक्तकी रक्षा करनी चाहिये।
शेषजी कहते हैं-राजाकी बात सुनकर भगवान् चन्द्रमौलि अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका मन लुभाते हुए हँसकर बोले- 'राजन् ! यदि तैंतीस
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करोड़ देवता भी आ जायें तो भी किसमें इतनी शक्ति है जो मेरे द्वारा रक्षित रहनेपर तुमसे घोड़ा ले सके। यदि साक्षात् भगवान् यहाँ आकर अपने स्वरूपकी झाँकी करायेंगे तो मैं उनके कोमल चरणों में मस्तक झुकाऊँगा; क्योंकि सेवकका स्वामीके साथ युद्ध करना बहुत बड़ा अन्याय बताया गया है। शेष जितने वीर हैं, वे मेरे लिये तिनकेके समान हैं—कुछ भी नहीं कर सकते। अतः राजेन्द्र ! तुम युद्ध करो, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ। मेरे रहते कौन ऐसा वीर है जो बलपूर्वक घोड़ा ले जा सके ? यदि त्रिलोकी भी संगठित होकर आ जाय तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।'
इधर श्रीरघुनाथजीके जितने सैनिक थे, वे अवका मार्ग ढूँढ रहे थे। इतनेहीमें महाराज शत्रुघ्र भी अपनी विशाल सेनाके साथ आ पहुँचे। आते ही उन्होंने सभी सेवकोंसे प्रश्न किया- 'कहाँ है मेरा अक्ष ? स्वर्णपत्रसे सुशोभित वह यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा इस समय दिखायी क्यों नहीं देता ?' उनकी बात सुनकर अश्वके पीछे चलनेवाले सेवकोंने कहा-'नाथ! उस मनके समान तीव्रगामी अश्वको इस जंगलमें किसीने हर लिया। हमें भी वह कहीं दिखायी नहीं देता।' सेवकोंके वचन सुनकर राजा शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा - 'मन्त्रिवर! यहाँ कौन राजा निवास करता है? हमें अश्वकी प्राप्ति कैसे होगी ? जिसने आज हमारे अश्वका अपहरण किया है, उस राजाके पास कितनी सेना है ?' इस प्रकार शत्रुघ्रजी मन्त्रीके साथ परामर्श कर रहे थे, इतनेहीमें देवर्षि नारद युद्ध देखनेके लिये उत्सुक होकर वहाँ आये। शत्रुघ्नने उन्हें स्वागत-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। वे बातचीत करनेमें बड़े चतुर थे; अतः अपनी वाणीसे नारदजीको प्रसन्न करते हुए बोले— 'महामते ! बताइये, मेरा अश्व कहाँ है ? उसका कुछ पता नहीं चलता। मेरे कार्य कुशल अनुचर भी उसके मार्गका अनुसन्धान नहीं कर पाते।'
नारदजी वीणा बजाते और श्रीराम कथाका बारम्बार गान करते हुए बोले- 'राजन्! यहाँ देवपुर नामका नगर है उसमें वीरमणि नामसे विख्यात एक बहुत बड़े राजा रहते हैं। उनका पुत्र इस वनमें आया था, उसीने