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. अर्वयस्थ हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
पुरीको पहुँचवा दिया। सूर्यवंशी राजाओंने जिसे अपना . श्रीरामचन्द्रजी भी अपने तेजसे जाज्वल्यमान निवास स्थान बनाया था, उस अवधपुरीको दूरसे ही तपोमूर्ति विप्रवर आरण्यक मुनिको आया देख उनके देखकर आरण्यक मुनि सवारीसे उतर पड़े और स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये। वे बड़ी देरतक श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी इच्छासे पैदल ही चलने लगे। उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये रहे। देवता और असुर जन-समुदायसे शोभा पानेवाली उस रमणीय नगरीमें अपनी मुकुट-मणियोंसे जिनके युगल-चरणोंकी आरती पहुँचकर उनके मनमें श्रीरामको देखनेके लिये हजार- उतारते हैं, वे ही प्रभु श्रीरघुनाथजी मुनिके पैरोंपर पड़कर हजार अभिलाषाएँ उत्पन्न हुई। थोड़ी ही देरमें वहाँ कहने लगे-'ब्राह्मणदेव ! आज आपने मेरे शरीरको यज्ञमण्डपसे सुशोभित सरयूके पावन तटपर उन्हें पवित्र कर दिया।' ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ महातपस्वी आरण्यक श्रीरामचन्द्रजीकी झाँकी हुई। भगवान्का श्रीविग्रह मुनिने राजाओंके शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको चरणोंमें दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर दिखायी देता था। उनके पड़ा देख उनका हाथ पकड़कर उठाया और अपने नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे। वे अपने प्रियतम प्रभुको छातीसे लगा लिया। कौसल्यानन्दन कटिभागमें मृगशृङ्ग धारण किये हुए थे। व्यास' आदि श्रीरामने ब्राह्मणको मणिनिर्मित ऊँचे आसनपर बिठाया महर्षि उन्हें घेरकर विराजमान थे और बहुत-से शूरवीर और स्वयं ही जल लेकर उनके दोनों पैर धोये। फिर उनकी सेवामें उपस्थित थे। उनके दोनों पार्श्वभागोंमें भरत चरणोदक लेकर भगवान्ने उसे अपने मस्तकपर चढ़ाया
और सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़े थे तथा श्रीरघुनाथजी और कहा–'आज मैं अपने कुटुम्ब और सेवकोंसहित दीनजनोंको मुंहमांगा दान दे रहे थे।
पवित्र हो गया।' तत्पश्चात् देवाधिदेवोंसे सेवित भगवान्का दर्शन करके आरण्यक मुनिने अपनेको श्रीरघुनाथजीने मुनिके ललाटमें चन्दन लगाया और उन्हें कृतार्थ माना । वे कहने लगे-'आज मेरे नेत्र सफल हो दूध देनेवाली गौ दान की। फिर मनोहर वचनोंमें गये, क्योंकि ये श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कर रहे हैं। मैंने कहा-'स्वामिन् ! मैं अश्वमेधयज्ञ कर रहा हूँ। आपके जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया था, वह आज चरण यहाँ आ गये, इससे अब यह यज्ञ पूर्ण हो सार्थक हो गया; क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीकी महिमाको जायगा। मेरे अश्वमेध-यज्ञको आपने चरणोंसे पवित्र कर जानकर इस समय मैं अयोध्यापुरीमें आ पहुँचा हूँ।' इस दिया।' राजाधिराजोंसे सेवित श्रीरघुनाथजीके ये वचन प्रकार हर्षमें भरकर उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। सुनकर आरण्यक मुनिने हंसते हुए मधुर वाणीमें श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन करके उनके समस्त कहा-'स्वामिन् ! आप ब्राह्मणोंके हितैषी और इस शरीरमें रोमाश हो आया था। इस अवस्थामें वे रमानाथ पृथ्वीके रक्षक हैं; अतः यह वचन आपहीके योग्य है। भगवान् श्रीरामके समीप गये, जो दूसरोंके लिये अगम्य महाराज ! वेदोंके पारगामी ब्राह्मण आपके ही विग्रह है। हैं तथा विचारपरायण योगेश्वरोंसे भी जो बहुत दूर हैं। यदि आप ब्राह्मणोंकी पूजा आदि कर्तव्य-कर्मोका भगवान्के निकट पहुँचकर वे बोल उठे-'अहा ! आज आचरण करेंगे तो अन्य सब राजा भी ब्राह्मणोंका आदर मैं धन्य हो गया; क्योंकि श्रीरघुनाथजीके चरण मेरे नेत्रोंके करेंगे। शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित मूढ़ मनुष्य भी यदि आपके समक्ष विराजमान हैं। अब मैं श्रीरामचन्द्रजीको देखकर नामका स्मरण करता है तो वह सम्पूर्ण पापोंके इनसे वार्तालाप करके अपनी वाणीको पवित्र बनाऊँगा।' महासागरको पार करके परम पदको प्राप्त होता है। सभी
१-यहाँ 'व्यास' शब्दका अर्थ शास्त्रको व्याख्या करनेवाले विद्वान् महर्षि वसिष्ठ या अगस्त्य आदिका वाचक है, श्रीकृष्णद्वैपायनका नहीं; क्योंकि उस समयतक उनका प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। 'विस्तारो विग्रहो व्यासः' इस कोषके अनुसार 'व्याख्याकारक' अर्थ मानना सुसंगत है। पुराण आदि कथा बाचनेवाले ब्राह्मणको भी 'व्यास' कहते हैं; 'य एवं वाचयेद् विप्रः स ब्रह्मन् व्यास उच्यते। इस पौराणिक वचनसे इसका समर्थन होता है।