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पातालखण्ड]
• शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्चमपर जाना •
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सागरसे तर जओगे। जो मनुष्य प्रतिदिन चन्दन आदि हादिनी शक्ति लक्ष्मी भी अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें सामग्रियोंसे इच्छानुसार श्रीरामचन्द्रजीका पूजन करता है, त्रेतायुग आनेपर सूर्यवंशमें श्रीरघुनाथजीका पूर्णावतार उसे इहलोक और परलोकको उत्तम समृद्धि प्राप्त होती हुआ। उनकी श्रीरामके नामसे प्रसिद्धि हुई। श्रीरामके है, तुमने श्रीरामके ध्यानका प्रकार पूछा था । सो मैंने तुम्हें नेत्र कमलके समान शोभायमान थे। लक्ष्मण सदा उनके बता दिया। इसके अनुसार ध्यान करके भवसागरके पार साथ रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने यौवनमें प्रवेश किया। हो जाओ।'
तत्पश्चात् पिताकी आज्ञासे दोनों भाई-श्रीराम और आरण्यकने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! मैं आपसे पुनः लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्रके अनुगामी हुए। राजा कुछ प्रश्न करता हूँ, मुझे उनका उत्तर दीजिये। महामते! दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये अपने दोनों कुमारोंको गुरुजन अपने सेवकपर कृपा करके उन्हें सब बातें बता विश्वामित्रके अर्पण कर दिया था। वे दोनों भाई देते हैं। महाभाग ! आप प्रतिदिन जिनका ध्यान करते हैं जितेन्द्रिय, धनुर्धर और वीर थे। मार्गमें जाते समय उन्हें वे श्रीराम कौन हैं तथा उनके चरित्र कौन-कौन से हैं? भयङ्कर वनके भीतर ताड़का नामकी राक्षसी मिली। यह बतानेकी कृपा कोजिये। द्विजश्रेष्ठ ! श्रीरामने उसने उनके रास्तेमें विघ्न डाला। तब महर्षि विश्वामित्रकी किसलिये अवतार लिया था? वे क्यों मनुष्यशरीरमें आज्ञासे रघुकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काको प्रकट हुए थे? आप मेरा सन्देह निवारण करनेके लिये परलोक भेज दिया। गौतम-पत्नी अहल्या, जो इन्द्रके सब बातोंको शीघ्र बताइये।
साथ सम्पर्क करनेके कारण पत्थर हो गयी थी, श्रीरामके _ मुनिके परम कल्याणमय वचन सुनकर महर्षि चरण-स्पर्शसे पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त हो गयी। लोमशने श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत चरित्रका वर्णन किया। विश्वामित्रका यज्ञ प्रारम्भ होनेपर श्रीरघुनाथजीने अपने वे बोले-'योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्ने सम्पूर्ण लोकोंको श्रेष्ठ बाणोंसे मारीचको घायल किया और सुबाहुको मार दुःखी जानकर संसारमें अपनी कीर्ति फैलानेका विचार डाला। तदनन्तर राजा जनकके भवनमें रखे हुए किया। ऐसा करनेका उद्देश्य यह था कि जगत्के मनुष्य शङ्करजीके धनुषको तोड़ा। उस समय श्रीरामचन्द्रजीकी मेरी कीर्तिका गान करके घोर संसारसे तर जायेंगे। यह अवस्था पंद्रह वर्षकी थी। उन्होंने छः वर्षकी समझकर भक्तोंका मन लुभानेवाले दयासागर भगवान्ने अवस्थावाली मिथिलेशकुमारी सीताको, जो परम सुन्दरी चार विग्रहोंमें अवतार धारण किया। साथ ही उनकी और अयोनिजा थी, वैवाहिक विधिके अनुसार ग्रहण
___महामरक्तस्वर्णनीलरत्नादिशोभितम्॥ सिंहासनं चित्तहरं कात्या तामिसनाशनम् । तत्रोपरि समासीनं रघुराज मनोरमम् ।। दूर्वादलश्यामतनुं देवं देवेन्द्रपूजितम् । राकायां पूर्णशीतांशुकान्तिधिकारिवत्रिणम्॥ अष्टमीचन्द्रशकलसमभालाधिधारिणम्। नीलकुन्तलशोभाक्य किरीटमणिरञ्जितम् ॥
मकराकारसौन्दर्यकुण्डलाभ्यां विराजितम्॥
विद्रुमप्रभसत्कातिरदच्छदविराजितम् । तारापतिकराकारद्विजराजिसुशोभितम् ।जपापुष्पाभया माध्व्या जिलया शोभिताननम्॥ यस्यां वसन्ति निगमा ऋगाद्याः शास्त्रसंयुताः । कम्बुकान्तिधरप्रीवाशोभया समलङ्कतम्॥ सिंहवदुखको स्कन्धौ मांसलौ बिभ्रतं वरम् । बाहू दधानं दीर्घाङ्गनै केयूरकटकाङ्कितौ ॥ मुद्रिकाहीरशोभाभिर्भूषितौ जानुलम्बिनौ । वक्षो दधानं विपुलं लक्ष्मीवासेन शोभितम् ॥ श्रीवत्सादिविचित्राबैरङ्कितं सुमनोहरम्। महोदरं महानाभिं शुभकट्या विराजितम् । काश्चया वै मणिमय्या च विशेषेण श्रियान्वितम्। ऊरुभ्यां विमलाभ्यां च जानुभ्यां शोभितं श्रिया ॥ .. . चरणाभ्यां वज्ररेखाययाङ्कशसुरेखया । युताभ्यां योगिध्येयाभ्या कोमलाभ्यां विराजितम् ॥ (३५। ५७-६८)