________________ * अर्चयस्व हृषीकेशं बदीच्छसि पर पदम् . ........ [संक्षिप्त पयपुराण .. . . . . . . . . . . . और ग्राहको मौतके घाट उतार दिया / जहाँ-जहाँ आपके संन्यासी बावाको नमस्कार किया और अर्घ्य, पाद्य तथा सेवकोपर सङ्कट आता है वहीं-वहीं आप देह धारण आसन आदि निवेदन करके उनका विधिवत् पूजन करके अपने भक्तोंकी रक्षा करते हैं। आपकी लीलाएँ किया। इसके बाद वे बोले-'महात्मन् ! आज मेरे मनको मोहने तथा पापको हर लेनेवाली हैं। उन्हींके द्वारा सौभाग्यकी कोई तुलना नहीं है; क्योंकि आज आप-जैसे आप भक्तोंका पालन करते हैं। भक्तवल्लभ ! आप साधु पुरुषने कृपापूर्वक मुझे दर्शन दिया है। मैं समझता दीनोंके नाथ हैं, देवताओंके मुकुटमें जड़े हुए हीरे आपके हूँ, इसके बाद अब भगवान् गोविन्द भी मुझे अपना चरणोंका स्पर्श करते हैं। प्रभो! आप करोड़ों पापोंको दर्शन देंगे।' यह सुनकर संन्यासी बाबाने कहाभस्म करनेवाले हैं। मुझे अपने चरण-कमलोका दर्शन 'राजन् ! मेरी बात सुनो, मैं अपनी ज्ञानशक्तिसे भूत, दीजिये। यदि मैं पापी हूँ तो भी आपके मानसमें- भविष्य और वर्तमान-तीनों कालकी बात जानता हूँ, आपको प्रिय लगनेवाले इस पुरुषोत्तमक्षेत्रमें आया हूँ, इसलिये जो कुछ भी कहूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनना, अतः अब मुझे दर्शन दीजिये। देव-दानव-वन्दित कल दोपहरके समय भगवान् तुम्हें दर्शन देंगे, वही परमेश्वर ! हम आपके ही हैं। आप पाप-राशिका नाश दर्शन, जो ब्रह्माजीके लिये भी दुर्लभ है, तुम्हें सुलभ करनेवाले हैं। आपको यह महिमा मुझे भूली नहीं है। होगा। तुम अपने पाँच आत्मीय-जनोंके साथ परमपदको सबके दुःखोंको दूर करनेवाले दयामय ! जो लोग प्राप्त होओगे। तुम, तुम्हारे मन्त्री, तुम्हारी रानी, ये तपस्वी आपके पवित्र नामोंका कीर्तन करते हैं, वे पाप-समुद्रसे ब्राह्मण तथा तुम्हारे नगरमें रहनेवाला करम्ब नामका तर जाते हैं। यदि संतोंके मुखसे सुनी हुई मेरी यह बात साधु, जो जातिका तन्तुवाय-कपड़ा बुननेवाला सच्ची है तो आप मुझे प्राप्त होइये-मुझे दर्शन देकर जुलाहा है-इन सबके साथ तुम पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर कृतार्थ कीजिये। जा सकोगे। वह पर्वत देवताओद्वारा पूजित तथा ब्रह्मा सुमति कहते हैं-इस प्रकार राजा रत्नग्रीव और इन्द्रद्वारा अभिवन्दित है।' यह कहकर संन्यासी रात-दिन भगवान्का गुणगान करते रहे। उन्होंने बाबा अन्तर्धान हो गये, अब वे कहीं दिखायी नहीं देते क्षणभरके लिये भी न तो कभी विश्राम किया, न नींद ली थे। उनकी बात सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। साथ और न कोई सुख ही उठाया। वे चलते-फिरते, ठहरते, ही विस्मय भी। उन्होंने तपस्वी ब्राह्मणसे पूछागीत गाते तथा वार्तालाप करते समय भी निरन्तर यही स्वामिन् ! वे संन्यासी कौन थे, जो यहाँ आकर मुझसे कहते कि–'पुरुषोत्तम ! कृपानाथ ! आप मुझे अपने बात कर गये हैं, इस समय वे फिर दिखायी नहीं देते, स्वरूपकी झाँकी कराइये। इस तरह गङ्गासागरके तटपर कहाँ चले गये? उन्होंने मेरे चित्तको बड़ा हर्ष प्रदान रहते हुए राजाके पाँच दिन व्यतीत हो गये। तब किया है।' दयासागर श्रीगोपालने कृपापूर्वक विचार किया कि 'यह तपस्वी ब्राह्मणने कहा-राजन् ! वे समस्त राजा मेरी महिमाका गान करनेके कारण सर्वथा पापरहिन्न पापोंका नाश करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ही थे, जो हो गया है; अतः अब इसे मेरे देव-दानव-वन्दित तुम्हारे महान् प्रेमसे आकृष्ट होकर यहाँ आये थे। कल प्रियतम विग्रहका दर्शन होना चाहिये।' ऐसा सोचकर दोपहरके समय महान् पर्वत नीलगिरि तुम्हारे सामने भगवान्का हृदय करुणासे भर गया और वे संन्यासीका प्रकट होगा, तुम उसपर चढ़कर भगवान्का दर्शन करके वेष धारण करके राजाके समीप गये। तपस्वी ब्राह्मणने कृतार्थ हो जाओगे। देखा, भगवान् अपने भक्तपर कृपा करनेके लिये हाथमें ब्राह्मणका यह वचन अमृत-राशिके समान त्रिदण्ड ले यतिका वेष बनाये यहाँ उपस्थित हुए हैं। सुखदायी प्रतीत हुआ; उसने राजाके हृदयकी सारी नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने 'ॐ नमो नारायणाय' कहकर चिन्ताओंका नाश कर दिया। उस समय काञ्ची-नरेशको