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पातालखण्ड ] . राजा रत्रग्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना .
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इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान्के चरणोंमें थीं। सबके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा मस्तक नवाकर पुनः प्रणाम किया। उस समय उनका रहे थे। सभी मेघके समान श्यामसुन्दर और विशुद्ध स्वर गद्गद हो रहा था । समस्त अङ्गोंमें रोमाश हो आया स्वभाववाले थे। सबके हाथ कमलोंकी भाँति सुशोभित था। उनकी इस स्तुतिसे भगवान् पुरुषोत्तम बहुत प्रसन्न थे। हार, केयूर और कड़ोंसे सभीके अङ्ग विभूषित थे। हुए। उन्होंने राजासे सत्य और सार्थक वचन कहा। इस प्रकार उन सब लोगोंने वैकुण्ठधामकी यात्रा की।
श्रीभगवान् बोले-राजन् ! तुम्हारे द्वारा की हुई साथमें आये हुए प्रजावर्गक लोगोंने विमानोंकी पंक्तियाँ इस स्तुतिसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ है। महाराज ! तुम यह देखीं तथा दुन्दुभीकी ध्वनिको भी श्रवण किया। उस जान लो कि मैं प्रकृतिसे परे रहनेवाला परमात्मा हूँ। अब समय एक ब्राह्मण भी वहाँ गये थे, जो भगवान्के तुम शीघ्र ही मेरा नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करो। इससे चरणारविन्दोंमें बड़ा प्रेम रखनेवाले थे। उनके चित्तपर परम मनोहर चतुर्भुज रूपको प्राप्त होकर परमपदको भगवविरहका इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे जाओगे। जो मनुष्य तुम्हारे किये हुए इस स्तोत्ररत्नसे मेरी चतुर्भुज-स्वरूप हो गये। यह अद्भुत बात देखकर सब स्तुति करेगा; उसे भी मैं अपना उत्तम दर्शन दूंगा, जो लोग ब्राह्मणके महान् सौभाग्यकी सराहना करने लगे भोग और मोक्ष-दोनों प्रदान करनेवाला है। और गङ्गासागर-सङ्गममें स्नान करके काशीनगरीमें लौट
भगवान्के कहे हुए इस वचनको सुनकर राजाने आये। सब लोग कहते थे कि 'उत्तम बुद्धिवाले महाराज अपनी सेवामें रहनेवाले चारों स्वजनोंके साथ नैवेद्य रलग्रीवका अहोभाग्य है, जो वे इसी शरीरसे श्रीविष्णुके भक्षण किया। तदनन्तर क्षुद्रघण्टिकाओंसे सुशोभित परमधामको चले गये।' सुन्दर विमान उपस्थित हुआ। उस समय धर्मात्मा राजा [सुमति कहते हैं-]राजन् ! यही वह रत्नग्रीवने, जो भगवान्के कृपापात्र हो चुके थे, नीलगिरि है, जिसका भगवान् पुरुषोत्तमने आदर बढ़ाया श्रीपुरुषोत्तमदेवका दर्शन करके उनके चरणोंमें प्रणाम है। इसका दर्शन करनेमात्रसे मनुष्य परमपदकिया तथा उनकी आज्ञा ले अपनी रानीके साथ वैकुण्ठधामको प्राप्त हो जाते हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष विमानपर जा बैठे। फिर भगवान्के देखते-देखते अद्भुत नीलगिरिके इस माहात्म्यको सुनता है तथा जो दूसरे वैकुण्ठलोकमें चले गये। राजाके मन्त्री भी धर्मपरायण लोगोंको सुनाता है, वे दोनों ही परमधामको प्राप्त होते तथा धर्मवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ थे; अतः वे भी विमानपर हैं। इसका श्रवण और स्मरण करनेमात्रसे बुरे सपने नष्ट बैठकर उनके साथ ही गये। सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्रान हो जाते हैं तथा अन्तमें भगवान् पुरुषोत्तम इस संसारसे करनेवाले तपस्वी ब्राह्मण भी चतुर्भुज-स्वरूपको प्राप्त उद्धार कर देते हैं। ये नीलाचलनिवासी पुरुषोत्तम होकर वैकुण्ठको चले गये। इसी प्रकार करम्बने भी श्रीरामचन्द्रके ही स्वरूप हैं तथा देवी सीता साक्षात् भगवान्के गुणोंका गायन करनेके पुण्यसे उनका दर्शन महालक्ष्मी हैं। ये दोनों दम्पत्ति ही समस्त कारणोंके भी पाया और सम्पूर्ण देवताओंके लिये दुर्लभ भगवद्- कारण हैं। भगवान् श्रीराम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान धामको प्रस्थान किया। सभी एक ही साथ परम अद्भुत करके सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र कर देंगे। उनका नाम विष्णुलोककी ओर प्रस्थित हुए। सबके चार-चार भुजाएँ ब्रह्महत्याके प्रायश्चित्तमें भी जपनेके लिये बताया गया
* त्यतो जातं पुराणायं जगत् स्थानु चरिष्णु च । चेतनाशक्तिमाविश्य खमेन चेतयस्यहो ।
तव जन्म तु नास्त्येव नान्तस्तव जगत्पते । वृद्धिक्षयपरीणामास्त्वयि सन्त्येव नो विभो । तथापि भक्तरक्षार्थ धर्मस्थापनहेतवे । करोषि जन्मकर्माणि हानुरूपगुणानि च॥ त्वया मात्स्य वपुर्धत्वा शबस्तु निहतोऽसुरः । वेदाः सुरक्षिता अहान् महापुरुषपूर्वज ॥ शेषो न वेति मह ते भारत्यपि महेश्वरी । किमुतान्ये महाविष्णो मादृशास्तु कुबुद्धयः ॥ (२२ ॥ २८-३४)