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पातालखण्ड ] • पुष्कलके द्वारा चित्राङ्गका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार
मस्तकका उच्छेद करनेवाला था। उस बाणको उन्होंने चित्राङ्गके ऊपर छोड़ दिया। वह बाण छूटता देख बलवान् राजकुमारने भी धनुषपर कालाग्निके समान एक तीक्ष्ण बाण रखा और उससे अपने वधके लिये आते हुए पुष्कलके बाणको काट डाला। उस समय बाणके कट जानेपर पुष्कलकी सेनामें भारी हाहाकार मचा। कटे हुए बाणका पिछला आधा भाग धरतीपर गिर पड़ा किन्तु पूर्वार्ध भाग, जिसमें बाणका फल (नॉक) जुड़ा हुआ था, आगे बढ़ा। उसने एक ही क्षणमें कमलकी नालके समान चित्राङ्गका गला काट डाला। राजकुमारका सुन्दर मस्तक किरीट और कुण्डलोंसहित पृथ्वीपर गिर पड़ा और आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाने लगा। भरतकुमार वीरवर पुष्कलने राजकुमार चित्राङ्गको भूमिपर पड़ा देख उस क्रौञ्च व्यूहके भीतर प्रवेश किया, जो समस्त वीरोंसे सुशोभित हो रहा था।
तदनन्तर अपने पुत्र चित्राङ्गको प्राणहीन होकर धरतीपर पड़ा देख राजा सुबाहु पुत्रशोकसे अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगे। उस समय राजकुमार विचित्र और दमन अपने-अपने रथपर बैठकर आये और पिताके चरणों में प्रणाम करके समयोचित वचन बोले'राजन् ! हमलोगोंके जीते जी आपके हृदयमें दुःख क्यों हो रहा है। वीर पुरुषोंको तो युद्धमें मृत्यु अत्यन्त अभीष्ट होती है। यह चित्राङ्ग धन्य है, जो वीर भूमिमें शोभा पा रहा है। महामते ! आप शोक छोड़िये, दुःखसे इतने आतुर क्यों हो रहे हैं ? मान्यवर ! हम दोनोंको युद्धके लिये आज्ञा दीजिये और स्वयं भी युद्धमें मन लगाइये।' अपनी वीरतापर गर्व करनेवाले दोनों पुत्रोंका यह वचन सुनकर महाराजने शोक छोड़ दिया और युद्धके लिये निश्चय किया। साथ ही संग्राममें उन्मत्त होकर लड़नेवाले वे दोनों भाई विचित्र और दमन भी अपने समान योद्धाकी अभिलाषा करते हुए असंख्य सैनिकोंसे भरी हुई शत्रुकी सेनामें घुस गये। दमनने रिपुतापके और विचित्रने नीलरत्नके साथ लोहा लिया। वे दोनों वीर रणभूमिमें उत्साहपूर्वक युद्ध करने लगे। स्वयं राजा
संव्यव्य० १६
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सुबाहु सुवर्णजटित रथपर सवार हो करोड़ों वीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्नके साथ युद्ध करनेके लिये चले। सुबाहुको पुत्रवधके कारण रोषमें भरकर युद्धके लिये आते और सैनिकोंका नाश करते देखकर शत्रुघ्नके पार्श्वभागकी रक्षा करनेवाले हनुमानजी उनकी ओर दौड़े। नख ही उनके आयुध थे और वे युद्धमें मेघकी भाँति विकट गर्जना कर रहे थे। उस समय सुबाहुने दस बाणोंसे हनुमान्जीकी छातीमें बड़े वेगसे चोट की। परन्तु हनुमानजी बड़े भयंकर वीर थे। उन्होंने सुबाहुके छोड़े हुए सभी बाण अपने हाथसे पकड़ लिये और उन्हें तिल-तिल करके तोड़ डाला। वे महान् बलवान् तो थे ही; राजाके रथको अपनी पूँछमें लपेटकर वेगपूर्वक खींच ले चले। उन्हें रथ लेकर जाते देख नृपश्रेष्ठ सुबाहु आकाशमें ही खड़े हो गये और तीखी नोंकवाले सायकोंसे उनकी पूँछ, मुख, हृदय, बाहु और चरणोंमें बारम्बार चोट पहुँचाने लगे। तब कपिवर हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेगसे उछलकर उत्तम योद्धाओंसे सुशोभित राजा सुबाहुकी छातीमें लात मारी। राजा उनके चरण- प्रहारसे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े और मुखसे गरम-गरम रक्त वमन करने लगे। उस समय वे जोर-जोरसे साँस लेते हुए काँप रहे थे। मूर्च्छावस्थामें ही राजाने एक स्वप्र देखा – 'अयोध्यापुरीमें सरयूके तटपर भगवान श्रीरामचन्द्रजी यज्ञ मण्डपके भीतर विराजमान हैं। यज्ञ करानेवालोंमें श्रेष्ठ अनेक ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे हुए हैं। ब्रह्मा आदि देवता और करोड़ों ब्रह्माण्डके प्राणी हाथ जोड़े खड़े हैं तथा बारम्बार भगवान्की स्तुति कर रहे हैं। भगवान् श्रीरामका विग्रह श्याम रंगका है, उनके नेत्र सुन्दर हैं। उन्होंने अपने हाथमें मृगका सींग धारण कर रखा है। नारद आदि देवर्षिगण हाथोंसे वीणा बजाते हुए उनका सुयश गान कर रहे हैं। चारों वेद मूर्तिमान् होकर रघुनाथजीकी उपासना करते हैं। संसारमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तुएँ हैं, उन सबके दाता पूर्ण ब्रह्म भगवान् श्रीराम ही हैं।'
इस प्रकार स्वप्न देखते-देखते वे जाग उठे, उन्हें चेत हो आया। फिर तो वे शत्रुघ्रजीके चरणोंकी ओर