________________ * अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् , [संक्षिप्त पद्यपुराण लगे हुए साधु पुरुष मिलते है, जिनका दर्शन मनुष्योंकी जानेवाले पुरुषको गोहत्या आदिका पाप लगता है। जो पापराशिको भस्म करनेके लिये अग्निका काम देता है; अनिच्छासे भी तीर्थयात्रा करता है, उसे उसका आधा इसलिये संसार-बन्धनसे डरे हुए मनुष्योंको पवित्र फल मिल जाता है तथा पापक्षय भी होता ही है; किन्तु जलवाले तीर्थोंमें, जो सदा साधु-महात्माओंके विधिके साथ तीर्थदर्शन करनेसे विशेष फल की प्राप्ति सहवाससे सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये। होती है [यह ऊपर बताया जा चुका है / इस प्रकार नृपश्रेष्ठ ! यदि तीर्थोका विधिपूर्वक दर्शन किया मैंने थोड़ेहीमें यह तीर्थकी विधि बतायी है, इसका जाय तो वे पापका नाश कर देते हैं, अब तीर्थसेवनको विस्तार नहीं किया है। इस विधिका आश्रय लेकर तुम विधिका श्रवण करो। पहले स्त्री, पुत्रादि कुटुम्बको पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये जाओ। महाराज ! मिथ्या समझकर उसकी ओरसे अपने मनमें वैराग्य भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपनी भक्ति प्रदान करेंगे, उत्पन्न करे और मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करता जिससे एक ही क्षणमें तुम्हारे संसार-बन्धनका नाश हो रहे। तदनन्तर 'राम-राम' की रट लगाते हुए तीर्थयात्रा जायगा। नरश्रेष्ठ ! तीर्थयात्राकी यह विधि सम्पूर्ण आरम्भ करे, एक कोस जानेके पश्चात् वहाँ तीर्थ (पवित्र पातकोंका नाश करनेवाली है, जो इसे सुनता है वह जलाशय) आदिमें स्नान करके क्षौर करा डाले / यात्राकी अपने सारे भयङ्कर पापोंसे छुटकारा पा जाता है। विधि जाननेवाले पुरुषके लिये ऐसा करना नितान्त सुमति कहते हैं-सुमित्रानन्दन ! ब्राह्मणकी यह आवश्यक है। तीर्थोकी ओर जाते हुए मनुष्योंके पाप बात सुनकर राजा रत्नग्रोवने उनके चरणोंमें प्रणाम उसके बालोंपर ही स्थित रहते हैं, अतः उनका मुण्डन किया। उस समय पुरुषोत्तमतीर्थके दर्शनकी उत्कण्ठासे अवश्य करावे। उसके बाद बिना गाँठका डंडा, उनका चित्त विहल हो रहा था। राजाके मन्त्री मन्त्रज्ञोंमें कमण्डलु और मृगचर्म धारण करे तथा लोभका त्याग श्रेष्ठ और अच्छे स्वभावके थे। राजाने समस्त करके तीर्थोपयोगी वेष बना ले। विधिपूर्वक यात्रा पुरवासियोंको तीर्थयात्राकी इच्छासे साथ ले जानेका करनेवाले मनुष्योंको विशेषरूपसे फलकी प्राप्ति होती है, विचार करते हुए अपने मन्त्रीको आज्ञा दी–'अमात्य ! इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके तीर्थयात्राको विधिका पालन तुम नगरके सब लोगोंको मेरा यह आदेश सुना दो कि करे। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मन अपने वशमें सबको भगवान् पुरुषोत्तमके चरणारविन्दोका दर्शन होते हैं तथा जिसके भीतर विद्या, तपस्या और कीर्ति करनेके लिये चलना है। मेरे नगरमें जो श्रेष्ठ मनुष्य रहती है, वही तीर्थक वास्तविक फलका भागी होता निवास करते हैं तथा जो लोग मेरी आज्ञाका पालन है।* 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते / शरण्य करनेवाले है वे सब मेरे साथ ही यहाँसे निकले। उन भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः' (19 / 25) पुत्रोंसे तथा सदा अनीतिमें लगे रहनेवाले बन्धुजिह्वासे इस मन्त्रका पाठ तथा मनसे भगवानका स्मरण बान्धवोंसे क्या लेना है, जिन्होंने आजतक अपने नेत्रोंसे करते हुए पैदल ही तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; तभी पुण्यदायक पुरुषोत्तमका दर्शन नहीं किया ? जिनके पुत्र वह महान् अभ्युदयका साधक होता है। जो मनुष्य और पौत्र भगवानकी शरणमें नहीं गये, उनकी वे सन्ताने सवारीसे यात्रा करता है उसका फल सवारी ढोनेवाले सूकरोंके झुंडके समान हैं। मेरी प्रजाओ ! जो भगवान् प्राणीके साथ बराबर-बराबर बँट जाता है। जूता पहनकर अपना नाम लेनेमात्रसे सबको पवित्र कर देनेकी शक्ति जानेवालेको चौथाई फल मिलता है और बैलगाड़ीपर रखते हैं, उनके चरणोंमें शीघ्र मस्तक झुकाओ।' * यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंहितम् / विद्यातपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमभुते // (19 / 24) हरे कृष्ण ! भक्तवत्सल गोपाल ! सबको शरण देनेवाले भगवन् ! विष्णो ! मुझे अनेकों जन्मोंके चक्करमें पड़नेसे बचाइये।