________________ 452 . अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण सुशोभित कर रहे थे। उस सरिताका दर्शन करके सकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वेदोक्त मार्गपर महाराजने धर्मके ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मणसे उसका परिचय स्थित रहनेवाला शूद्र गृहस्थ भी शालग्रामकी पूजा करके पूछा; क्योंकि वे अनेकों तीर्थोकी विशेष महिमाके ज्ञानमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है। परन्तु स्त्रीको कभी बढ़े-चढ़े थे। राजाने प्रश्न किया-'स्वामिन् ! शालग्रामशिलाका पूजन नहीं करना चाहिये। विधवा हो महर्षि-समुदायके द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याणकी है? जो अपने दर्शनसे मेरे चित्तमें अत्यन्त आह्वाद इच्छा रखती है तो शालग्रामशिलाका स्पर्श न करे / यदि उत्पन्न कर रही है।' बुद्धिमान् महाराजका यह वचन मोहवश उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्यसुनकर विद्वान् ब्राह्मणने उस तीर्थका अद्भुत माहात्म्य समूहका त्याग करके तुरंत नरकमें पड़ती है। कोई बतलाना आरम्भ किया। कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, ब्राह्मणने कहा-राजन्! यह गण्डकी नदी है शालग्रामशिलाको स्नान कराया हुआ जल (भगवान्का [इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं), देवता चरणामृत) पी लेनेपर परमगतिको प्राप्त होता है। और असुर सभी इसका सेवन करते हैं। इसके पावन भगवान्को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शङ्ख, घण्टा, जलकी उत्ताल तरङ्गे राशि-राशि पातकोंको भी भस्म कर चक्र, शालग्रामशिला, ताप्रपात्र, श्रीविष्णुका नाम तथा डालती हैं। यह अपने दर्शनसे मानसिक, स्पर्शसे उनका चरणामृत-ये सभी वस्तुएँ पावन हैं। उपर्युक्त नौ कर्मजनित तथा जलका पान करनेसे वाणीद्वारा होनेवाले वस्तुओंके साथ भगवानका चरणामृत पापराशिको दग्ध पापोंके समुदायको दग्ध करती है। पूर्वकालमें प्रजापति करनेवाला है। ऐसा सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले ब्रह्माजीने सब प्रजाको विशेष पापमें लिप्त देखकर अपने शान्तचित्त महर्षियोंका कथन है। राजन् ! समस्त तीर्थोंमें गण्डस्थल (गाल) के जलकी बूंदोंसे इस पापनाशिनी स्नान करनेसे तथा सब प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्का नदीको उत्पन्न किया। जो उत्तम लहरोंसे सुशोभित इस पूजन करनेसे जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान्के पुण्यसलिला नदीके जलका स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य चरणामृतकी एक-एक बूंदमें प्राप्त होता है। पापी हों तो भी पुनः माताके गर्भ में प्रवेश नहीं करते। [चार, छः, आठ आदि] समसंख्या में शालग्रामइसके भीतरसे जो चक्रके चिह्नोंद्वारा अलङ्कत पत्थर मूर्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। परन्तु समसंख्यामें दो प्रकट होते हैं, वे साक्षात् भगवान्के ही विग्रह है- शालग्रामोंकी पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार भगवान् ही उनके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य विषमसंख्यामें भी शालग्राममूर्तियोंकी पूजा होती है, प्रतिदिन चक्रके चिह्नसे युक्त शालग्रामशिलाका पूजन किन्तु विषममें तीन शालग्रामोंकी नहीं। द्वारकाका चक्र करता है वह फिर कभी माताके उदरमें प्रवेश नहीं तथा गण्डकी नदीके शालग्राम-इन दोनोंका जहाँ करता। जो बुद्धिमान् श्रेष्ठ शालग्रामशिलाका पूजन समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गङ्गाकी उपस्थिति मानी करता है, उसको दम्भ और लोभसे रहित एवं सदाचारी जाती है। यदि शालग्रामशिलाएँ रूखी हों तो वे पुरुषोंको होना चाहिये / परायी स्त्री और पराये धनसे मुँह मोड़कर आयु, लक्ष्मी और उत्तम कीर्तिसे वञ्चित कर देती हैं; यत्नपूर्वक चक्राङ्कित शालग्रामका पूजन करना चाहिये। अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हींका द्वारकामें लिया हुआ चक्रका चिह्न और गण्डकी नदीसे पूजन करना चाहिये / वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं। पुरुषको उत्पन्न हुई शालग्रामको शिला-ये दोनों मनुष्योंके सौ आयुकी इच्छा हो या धनकी, यदि वह शालग्रामजन्मोंके पाप भी एक ही क्षणमें हर लेते हैं। हजारों शिलाका पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और पापोंका आचरण करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, पारलौकिक-सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। राजन् ! शालग्रामशिलाका चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र हो जो मनुष्य बड़ा भाग्यवान् होता है, उसीके प्राणान्तके