________________ पातालखण्ड] . तीर्थयात्राकी विधि एवं शालग्रामशिलाकी महिमा * राजाका यह मनोहर वचन भगवान्के गुणोंसे गुंथा चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। एक कोस जानेके बाद हुआ था। इसे सुनकर सत्यनामवाले प्रधान मन्त्रीको उन्होंने विधिके अनुसार मुण्डन कराया और दण्ड, बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने हाथीपर बैठकर ढिंढोरा पीटते कमण्डलु तथा सुन्दर मृग-चर्म धारण किये। इस प्रकार हुए सारे नगरमें घोषणा करा दी। तीर्थयात्राकी इच्छासे वे महायशस्वी राजा उत्तम वेषसे युक्त होकर भगवान्के महाराजने जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार सब प्रजाको ध्यानमें तत्पर हो गये और उन्होंने अपने मनको कामयह आदेश दिया- 'पुरवासियो! आप सब लोग क्रोधादि दोषोंसे रहित बना लिया। उस समय भिन्न-भिन्न महाराजके साथ तुरंत नीलगिरिको चलें और सब पापोंके बाजोंको बजानेवाले लोग बारंबार दुन्दुभि, भेरी, आनक, हरनेवाले पुरुषोत्तम भगवान्का दर्शन करें। ऐसा करके पणव, शङ्ख और वीणा आदिकी ध्वनि फैला रहे थे। आपलोग समस्त संसार-समुद्रको अपने लिये गायकी सभी यात्री यही कहते हुए आगे बढ़ रहे थे कि 'समस्त खुरके समान बना लें। साथ ही सब लोग अपने-अपने दुःखोंको दूर करनेवाले देवेश्वर ! आपकी जय हो, शरीरको शङ्ख, चक्र आदि चिह्नोंसे विभूषित करें।' इस पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध परमेश्वर ! मुझे अपने स्वरूपका प्रकार प्रधान सचिवने, जो श्रीरघुनाथजीके चरणोंका दर्शन कराइये।' ध्यान करनेके कारण अपने शोक-सन्तापको दूर कर चुके तदनन्तर जब महाराज रत्नग्रीव सब लोगोंके साथ थे, राजा रत्नप्रीवके अद्भुत आदेशकी सर्वत्र घोषणा करा यात्राके लिये चल दिये तो मार्गमें उन्हें अनेकों स्थानोपर दी। उसे सुनकर सारी प्रजा आनन्द-रसमें निमग्न हो महान् सौभाग्यशाली वैष्णवोंके द्वारा किया जानेवाला गयी। सबने पुरुषोत्तमका दर्शन करके अपना उद्धार श्रीकृष्णका कीर्तन सुनायी पड़ा। जगह-जगह गोविन्दका करनेका निश्चय किया। पुरवासी ब्राह्मण सुन्दर वेष धारण गुणगान हो रहा था-'भक्तोंको शरण देनेवाले करके राजाको आशीर्वाद और वरदान देते हुए शिष्योंके पुरुषोत्तम ! लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो।' काञ्चीनरेश साथ नगरसे बाहर निकले, क्षत्रियवीर धनुष धारण यात्राके पथमें अनेकों अभ्युदयकारी तीथोंका सेवन और करके चले और वैश्य नाना प्रकारकी उपयोगी वस्तुएँ दर्शन करते तथा तपस्वी ब्राह्मणके मुखसे उनकी महिमा लिये आगे बढ़े। शूद्र भी संसार-सागरसे उद्धार पानेकी भी सुनते जाते थे। भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सोचकर पुलकित हो रहे थे। धोबी, चमार, शहद अनेकों प्रकारकी विचित्र बातें सुननेसे राजाका भलीभांति बेचनेवाले, किरात, मकान बनानेवाले कारीगर, दर्जी, मनोरञ्जन होता था और वे मार्गक बीच-बीचमें अपने पान बेचनेवाले, तबला बजानेवाले, नाटकसे जीविका गायकोंद्वारा महाविष्णकी महिमाका गान कराया करते निभानेवाले नट आदि, तेली, बजाज, पुराणकी कथा थे। महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान् और जितेन्द्रिय थे, सुनानेवाले सूत, मागध तथा वन्दी-ये सभी हर्षमें वे स्थान-स्थानपर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पङ्गओंको भरकर राजधानीसे बाहर निकले। वैद्य-वृत्तिसे जीविका उनकी इच्छाके अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये चलानेवाले चिकित्सक तथा भोजन बनाने और स्वादिष्ट हुए सब लोगोंके सहित अनेकों तीर्थोंमें नान करके वे रसोंका ज्ञान रखनेवाले रसोइये भी महाराजकी प्रशंसा अपनेको निर्मल एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्का करते हुए पुरीसे बाहर निकले। राजा रत्नग्रीवने भी ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जाते-जाते महाराजने प्रातःकाल सन्ध्योपासन आदि करके शुद्ध अन्तःकरण- अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापोंको दूर वाले ब्राह्मण देवताको, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ थे, करनेवाली थी। उसके भीतरके पत्थर (शालग्राम) अपने पास बुलाया और उनकी आज्ञा लेकर वे नगरसे चक्रके चिह्नसे अङ्कित थे। वह मुनियोंके हृदयकी भांति बाहर निकले। आगे-आगे राजा थे और पीछे-पीछे स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदीके किनारे अनेकों पुरवासी मनुष्य। उस समय वे ताराओंसे घिरे हुए महर्षियोंके समुदाय कई पङ्क्तियोंमें बैठकर उसे