________________ * अर्चयस्व हबीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण उनके दोनों कंधोंपर दीमकोंने मिट्टीकी ढेरी जमा गया। राजाके कितने ही घोड़े नष्ट हो गये, बहुतेरे हाथी कर दी और उसपर दो पलाशके वृक्ष उग आये। हरिण मर गये, धन और रत्नका नाश हो गया तथा उनके साथ उत्सुकतापूर्वक वहाँ आते और मुनिके शरीरमें अपनी देह आये हुए लोगोंमें परस्पर कलह होने लगा। रगड़कर खुजली मिटाते थे; किन्तु उनको इन सब वह उत्पात देखकर राजा डर गये, उनका मन कुछ बातोंका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता था। वे अविचलभावसे उद्विग्न हो गया। वे सब लोगोंसे पूछने लगे-'किसीने स्थिर रहते थे। . मुनिका अपराध तो नहीं किया है?' परम्परासे उन्हें एक समयकी बात है। मनुके पुत्र राजा शर्याति अपनी पुत्रीकी करतूत मालूम हो गयी और वे अत्यन्त तीर्थयात्राके लिये तैयार होकर परिवारसहित नर्मदाके दुःखी होकर सेना और सवारियोसहित मुनिके पास तटपर गये, उनके साथ बहुत बड़ी सेना थी। महानदी गये। भारी तपस्यामें लगे हुए तपोनिधि च्यवन मुनिको 'नर्मदामें नान करके उन्होंने देवता और पितरोंका तर्पण देखकर राजाने स्तुतिके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया और किया तथा भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्नताके लिये कहा-'मुनिवर ! दया कीजिये।' तब महातपस्वी ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके दान दिये। राजाके एक कन्या मुनिश्रेष्ठ च्यवनने सन्तुष्ट होकर कहा-'महाराज ! तुम्हें थी, जो तपाये हुए सोनेके आभूषण पहनकर बड़ी सुन्दरी मालूम होना चाहिये कि यह सारा उत्पात तुम्हारी पुत्रीका दिखायी देती थी। वह अपनी सखियोंके साथ वनमें ही किया हुआ है। तुम्हारी कन्याने मेरी आँखें फोड़ इधर-उधर विचरने लगी। वहाँ उसने महान् वृक्षोंसे डाली हैं, इनसे बहुत खून गिरा है, इस बातको जानते सुशोभित वल्मीक (मिट्टीका ढेर) देखा, जिसके भीतर हुए भी उसने तुमसे नहीं बताया है; इसलिये अब तुम एक ऐसा तेज दीख पड़ा, जो निमेष और उन्मेषसे रहित शास्त्रीय विधिके अनुसार मुझे उस कन्याका दान कर था (उसमें खुलने-मिचनेकी क्रिया नहीं होती थी)। दो, तब सारे उत्पातोंकी शान्ति हो जायगी।' यह सुनकर राजकन्या कौतूहलवश उसके पास गयी और राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने उत्तम कुल, नयी शलाकाओंसे दबाकर उसे फोड़ डाला। फूटनेपर उससे अवस्था, सुन्दर रूप, अच्छे स्वभाव तथा शुभ लक्षणोंसे खून निकलने लगा। यह देखकर राजकुमारीको बड़ा सम्पन्न अपनी प्यारी पुत्री उन अंधे महर्षिको ब्याह दी। खेद हुआ और वह दुःखसे कातर हो गयी। अपराधसे राजाने कमलके समान नेत्रोंवाली उस कन्याका जब दान दबी होनेके कारण उसने माता और पिताको इस कर दिया तो मुनिके क्रोधसे प्रकट हुए सारे उत्पात दुर्घटनाका हाल नहीं बताया। वह भयसे आतुर होकर तत्काल शान्त हो गये। इस प्रकार तपोनिधि मुनिवर स्वयं ही अपने लिये शोक करने लगी। उस समय पृथ्वी च्यवनको अपनी कन्या देकर राजा शर्याति फिर अपनी काँपने लगी, आकाशसे उल्कापात होने लगा, सारी राजधानीको लौट आये। पुत्रीपर दया आनेके कारण वे दिशाएँ धूमिल हो गयीं तथा सूर्यके चारों ओर घेरा पड़ बहुत दुःखी थे। सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग-अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन सुमतिने कहा-सुमित्रानन्दन ! राजा शर्यातिके होनेके कारण उनके सारे पाप धुल गये थे। वह कन्या चले जानेके पश्चात् महर्षि च्यवन पनीरूपमें प्राप्त हुई अपने श्रेष्ठ पतिकी भगवबुद्धिसे सेवा करने लगी। उनकी कन्याके साथ अपने आश्रमपर रहने लगे। उसको यद्यपि वे नेत्रोंसे हीन थे और बुढ़ापाके कारण उनकी पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। योगाभ्यासमें प्रवृत्त शारीरिक शक्ति जवाब दे चुकी थी, तथापि वह उन्हें