________________ पातालखण्ड] . सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा तथा अश्विनीकुमारोंका च्यवनको यौवन-दान , 443 . ........ ब्राह्मणोंको बहुत-सा धन दिया और यज्ञके अन्तमें नाम बतलाते हुए मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और अवभृथ-स्नान किया। कहा- 'मुने! मैं श्रीरघुनाथजीका भाई और इस सुमित्रानन्दन ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह अश्वका रक्षक शत्रुघ्न हूँ। अपने महान् पापोंकी शान्तिके सब मैने कह सुनाया। महर्षि च्यवन तपस्या और लिये आपको नमस्कार करता हूँ।' यह वचन सुनकर योगवलसे सम्पत्र हैं। इन तपोमूर्ति महात्माको प्रणाम मुनिवर च्यवनने कहा-'नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ! तुम्हारा करके तुम विजयका आशीर्वाद ग्रहण करो और कल्याण हो। इस यज्ञरूपी अश्वका पालन करनेसे श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर यज्ञमें इन्हें पत्नीसहित पधारनेके संसारमें तुम्हारे महान् यशका विस्तार होगा।' शत्रुघ्नसे लिये प्रार्थना करो। ऐसा कहकर महर्षिने आश्रमवासी ब्राहाणोंसे कहाशेषजी कहते हैं-शत्रुघ्न और सुमतिमें इस 'ब्रह्मर्षियो ! यह आश्चर्यकी बात देखो, जिनके नामोंके प्रकार वार्तालाप हो रहा था, इतनेहीमें यज्ञका घोड़ा स्मरण और कीर्तन आदि मनुष्यके समस्त पापोंका नाश आश्रमके पास जा पहुंचा और उस महान् आश्रममें घूम- कर देते हैं, वे भगवान् श्रीराम भी यज्ञ करनेवाले हैं। घूमकर मुखके अग्रभागसे दूबके अङ्कर चरने लगा। महान् पातकी और परस्त्री-लम्पट पुरुष भी जिनका नाम इसी बीचमें शत्रुघ्न भी च्यवन मुनिके शोभायमान स्मरण करके आनन्दपूर्वक परमगतिको प्राप्त होते हैं।* आश्रमपर पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने सुकन्याके पास जिनके चरण-कमलोंकी धूलि पड़नेसे पत्थरकी मूर्ति बनी बैठे हुए महर्षि च्यवनका दर्शन किया, जो तपस्याके हुई अहल्या तत्क्षण मनोहर रूप धारण करके महर्षि मूर्तिमान स्वरूप-से जान पड़ते थे। सुमित्राकुमारने अपना गौतमकी धर्मपत्नी हो गयी। रणक्षेत्रमें जिनके मनोहारी रूपका दर्शन करके दैत्योंने उन्हींके निर्विकार स्वरूपको प्राप्त कर लिया तथा योगीजन समाधिमें जिनका ध्यान करके योगारूढ-अवस्थाको पहुँच गये और संसारके भयसे छुटकारा पाकर परमपदको प्राप्त हो गये, वे ही श्रीरघुनाथजी यज्ञ कर रहे है-यह कैसी अद्भुत बात है ! मेरा धन्य भाग, जो अब श्रीरामचन्द्रजीके उस सुन्दर मुखकी झाँकी करूँगा, जिसके नेत्रोंका प्रान्तभाग मेघके जलकी समानता करता है। जिसकी नासिका मनोहर और भौंहें सुन्दर हैं तथा जो विनयसे कुछ झुका हुआ है। जिह्वा वही उत्तम है जो श्रीरघुनाथजीके नामोंका आदरके साथ कीर्तन करती है। जो इसके विपरीत आचरण करती है, वह तो साँपकी जीभके समान है। आज मुझे अपनी तपस्याका पवित्र फल प्राप्त हो गया। अब मेरे सारे मनोरथ पूरे हो गये; क्योंकि ब्रह्मादि देवताओंको भी / जिसका दर्शन दुर्लभ है, भगवान् श्रीरामके उसी मुखको __ मैं इन नेत्रोंसे निहारूँगा। उनके चरणोंकी रजसे अपने * महापातकसंयुक्ताः परदाररता नराः / यत्रामस्मरणे युक्ता मुदा यान्ति परा गतिम्॥ (16 / 33) +सा जिह्वा रघुनाथस्य नामकीर्तनमादरात् / करोति विपरीता या फणिनो रसनासमा // (16 / 39)