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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
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ब्राह्मण प्रणामके बदले उक्तरूपसे आशीर्वाद देनेकी द्वारा ऊँचा उठा हुआ पुरुष भी गुरुजनोंसे द्वेष करनेके विधि नहीं जानता, वह विद्वान् पुरुषके द्वारा प्रणाम कारण नीचे गिर जाता है। समस्त गुरुजनोंमें भी पाँच करनेके योग्य नहीं है। जैसा शूद्र है, वैसा ही वह भी है। विशेष रूपसे पूज्य हैं। उन पाँचोंमें भी पहले पिता, माता अपने दोनों हाथोंको विपरीत दिशामें करके गुरुके और आचार्य-ये तीन सर्वश्रेष्ठ हैं। उनमें भी माता चरणोंका स्पर्श करना उचित है। अर्थात् अपने बायें सबसे अधिक सम्मानके योग्य है। उत्पन्न करनेवाला हाथसे गुरुके बायें चरणका और दाहिने हाथसे दाहिने पिता, जन्म देनेवाली माता, विद्याका उपदेश देनेवाला चरणका स्पर्श करना चाहिये। शिष्य जिनसे लौकिक, गुरु, बड़ा भाई और स्वामी-ये पाँच परमपूज्य गुरु माने वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गये है। कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि अपने पूर्ण गुरुदेवको वह पहले प्रणाम करे।
प्रयत्नसे अथवा प्राण त्यागकर भी इन पाँचोंका विशेष जल, भिक्षा, फूल और समिधा---इन्हें दूसरे रूपसे सम्मान करे । जबतक पिता और माता-ये दोनों दिनके लिये संग्रह न करे-प्रतिदिन जाकर जीवित हों, तबतक सब कुछ छोड़कर पुत्र उनकी सेवामें आवश्यकताके अनुसार ले आये। देवताके निमित्त किये संलग्न रहे। पिता-माता यदि पुत्रके गुणोंसे भलीभांति जानेवाले कार्योंमें भी जो इस तरहके दूसरे-दूसरे प्रसन्न हों, तो वह पुत्र उनकी सेवारूप कर्मसे ही सम्पूर्ण आवश्यक सामान हैं, उनका भी अन्य समयके लिये धर्मोका फल प्राप्त कर लेता है। माताके समान देवता संग्रह न करे। ब्राह्मणसे भेंट होनेपर कुशल पूछे, और पिताके समान गुरु दूसरा नहीं है। उनके किये हुए क्षत्रियसे अनामय, वैश्यसे क्षेम और शूद्रसे आरोग्यका उपकारोंका बदला भी किसी तरह नहीं हो सकता। अतः प्रश्न करे। उपाध्याय (गुरु), पिता, बड़े भाई, राजा, मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा उन दोनोंका प्रिय करना मामा, श्वशुर, नाना, दादा, वर्णमें अपनेसे श्रेष्ठ व्यक्ति चाहिये; उनकी आज्ञाके बिना दूसरे किसी धर्मका तथा पिताका भाई-ये पुरुषोंमें गुरु माने गये हैं। माता, आचरण न करे।* परन्तु यह निषेध मोक्षरूपी फल नानी, गुरुपत्नी, बुआ, मौसी, सास, दादी, बड़ी बहिन देनेवाले नित्य-नैमित्तिक कोंको छोड़कर ही लागू होता
और दूध पिलानेवाली धाय-इन्हें स्त्रियोंमें गुरु माना है। [मोक्षके साधनभूत नित्य-नैमित्तिक कर्म अनिवार्य गया है। यह गुरुवर्ग माता और पिताके सम्बन्धसे है, हैं, उनका अनुष्ठान होना ही चाहिये; उनके लिये ऐसा जानना चाहिये तथा मन, वाणी और शरीरकी किसीकी अनुमति लेना आवश्यक नहीं है।] यह धर्मके क्रियाद्वारा इनके अनुकूल आचरण करना चाहिये। सार-तत्त्वका उपदेश किया गया है। यह मृत्युके बाद भी गुरुजनोंको देखते ही उठकर खड़ा हो जाय और हाथ अनन्त फलको देनेवाला है। उपदेशक गुरुकी विधिवत् जोड़कर प्रणाम करे । इनके साथ एक आसनपर न बैठे। आराधना करके उनकी आज्ञासे घर लौटनेवाला शिष्य इनसे विवाद न करे । अपने जीवनकी रक्षाके लिये भी इस लोकमें विद्याका फल भोगता है और मृत्यु के पश्चात् गुरुजनोंके साथ द्वेषपूर्वक बातचीत न करे । अन्य गुणोंके स्वर्गमें जाता है।
* गुरूणामपि सर्वेषां पश पूज्या विशेषतः । तेषामाद्यास्त्रयः श्रेष्ठास्तेषां माता सुपूजिता ॥ यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते । ज्येष्ठो भ्राता च भर्ता च पीते गुरवः स्मृताः। आत्मनः सर्वबनेन प्राणत्यागेन वा पुनः । पूजनीया विशेषेण पछते भूतिमिच्छता ।। यावत् पिता च माता च द्वावेतौ निर्विकारिणौ । तावत्सर्व परित्यज्य पुत्रः स्यात्तत्परायणः ॥ पिता माता च सुप्रीती स्यातां पुत्रगुणैर्यदि। स पुत्रः सकलं धर्म प्राप्नुयात्तेन कर्मणा ।। नास्ति मातृसमं दैवं नास्ति पितृसमो गुरुः । तयोः प्रत्युपकारोऽपि न कथंचन विद्यते ॥ तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यात् कर्मणा मनसा गिरा। न ताभ्यामननुज्ञातो धर्ममन्य समाचरेत् ।।(५१ । ३५-४१)