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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
अनादर तथा रोषपूर्वक मिला हुआ अन्न भी नहीं खाना दूध पीने योग्य नहीं है-यह मनुका कथन है। मांसचाहिये। गुरुका अन्न भी यदि संस्काररहित हो तो वह भक्षण न करे । द्विजातियोंके लिये मदिरा किसीको देना, भोजन करनेयोग्य नहीं है। क्योंकि मनुष्यका सारा पाप स्वयं उसे पीना, उसका स्पर्श करना तथा उसकी ओर अनमें स्थित होता है। जो जिसका अन्न खाता है, वह देखना भी मना है-पाप है; उससे सदा दूर ही रहना उसका पाप भोजन करता है।
चाहिये-यही सनातन मर्यादा है। इसलिये पूर्ण प्रयत्न आधिक (किसान), कुलमित्र (कुमी), गोपाल करके सर्वदा मद्यका त्याग करे। जो द्विज मद्य-पान (ग्वाला), दास, नाई तथा आत्मसमर्पण करनेवाला करता है, वह द्विजोचित कर्मोंसे भ्रष्ट हो जाता है; उससे पुरुष—इनका अन्न भोजन करनेके योग्य है। बात भी नहीं करनी चाहिये।* अतः ब्राह्मणको सदा कुशीलब-चारण और क्षेत्रकर्मक-(खेतमें काम यलपूर्वक अभक्ष्य एवं अपेय वस्तुओंका परित्याग करना करनेवाले) इनका भी अन्न खानेयोग्य है। विद्वान् पुरुष उचित है । यदि त्याग न करके उक्त निषिद्ध वस्तुओंका इन्हें थोड़ी कीमत देकर इनका अन्न ग्रहण कर सकते हैं। सेवन करता है तो वह रौरव नरकमें जाता है। तेलमें पकायी हुई वस्तु, गोरस, सतू, तिलकी खली अब मैं परम उत्तम दानधर्मका वर्णन करूँगा।
और तेल-ये वस्तुएँ द्विजातियोंद्वारा शूद्रसे ग्रहण करने इसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने ब्रह्मवादी ऋषियोंको उपदेश योग्य है। भाँटा, कमलनाल, कुसुम्भ, प्याज, लहसुन, किया था। योग्य पात्रको श्रद्धापूर्वक धन अर्पण करना शुक्त और गोंदका त्याग करना चाहिये। छत्राक तथा दान कहलाता है। ओंकारके उच्चारणपूर्वक किया हुआ यन्त्रसे निकाले हुए आसव आदिका भी परित्याग करना दान भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला होता उचित है। गाजर, मूली, कुम्हड़ा, गूलर और लौकी है। दान तीन प्रकारका बतलाया जाता है—नित्य, खानेसे द्विज गिर जाता है। रातमें तेल और दहीका नैमित्तिक और काम्य। एक चौथा प्रकार भी है, जिसे यत्रपूर्वक त्याग करना चाहिये। दूधके साथ मट्ठा और "विमल' नाम दिया गया है। विमल दान सब प्रकारके नमकीन अन्न नहीं मिलाना चाहिये।
दानोंमें परमोत्तम है। जिसका अपने ऊपर कोई उपकार जिस अन्नके प्रति दूषित भावना हो गयी हो, जो न हो, ऐसे ब्राह्मणको फलकी इच्छा न रखकर प्रतिदिन दुष्ट पुरुषोंके सम्पर्कमें आ गया हो, जिसे कुत्तेने संघ जो कुछ दिया जाता है, वह नित्यदान है। जो पापोंकी लिया हो, जिसपर चाण्डाल, रजस्वला स्त्री अथवा शान्तिके लिये विद्वानोंके हाथमें अर्पण किया जाता है, पतितोंकी दृष्टि पड़ गयी हो, जिसे गायने संघ लिया हो, उसे श्रेष्ठ पुरुषोंने नैमित्तिक दान बताया है; वह भी उत्तम जिसे कौए अथवा मुर्गेन छू लिया हो, जिसमें कीड़े पड़ दान है। जो सन्तान, विजय, ऐश्वर्य और सुखकी प्राप्तिके गये हों, जो मनुष्योद्वारा सँघा अथवा कोढ़ीसे छू गया हो, उद्देश्यसे दिया जाता है, उसे धर्मका विचार करनेवाले जिसे रजस्वला, व्यभिचारिणी अथवा रोगिणी स्त्रीने दिया ऋषियोंने 'काम्य' दान कहा है तथा जो भगवान्की हो, ऐसे अन्नको त्याग देना चाहिये। दूसरेका वस्त्र भी प्रसन्नताके लिये धर्मयुक्त चित्तसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंको त्याज्य है। बिना बछड़ेकी गायका, ऊँटनीका, एक कुछ अर्पण किया जाता है, वह कल्याणमय दान खुरवाले पशु-घोड़ी आदिका, भेड़का तथा हथिनीका 'विमल' (सात्त्विक) माना गया है।
*अदेय वाप्यपेयं च तथैवास्पृश्यमेव वा। द्विजातीनामनालोक्य नित्य मद्यमिति स्थितिः ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन मद्यं नित्यं विवर्जयेत् । पीत्वा पतति कर्मभ्यस्त्वसंभाष्यो भवेद् द्विजः ॥ (५६ । ४३-४) + तस्मात् परिहरेत्रित्यमभक्ष्याणि प्रयत्नतः । अपेयानि च विप्रो वै तथा चेद् याति रौरवम्॥ (५६।४६) * नित्यं नैमित्तिक काम्यं त्रिविधं दानमुच्यते । चतुर्थ विमर्ल प्रोक्तं सर्वदानोत्तमोत्तमम् ॥
अहन्यहनि यत्किंचिद् दीयतेऽनुपकारिणे । अनुद्दिश्य फलं तस्माद् ब्राह्मणाय तु नित्यकम्।