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स्वर्गखण्ड]
• भगवद्धक्तिको प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता .
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बैठे हुए मनुष्य पार कर जाते हैं। इसलिये लोगोंको करे।* क्योंकि नाना प्रकारके नरकोंमें गिरनेके पश्चात् हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। लोग यदि पुनः उत्थान होता है, तभी मनुष्यका जन्म मिलता बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत है। वहाँ उसे गर्भवासका अत्यन्त दुःखदायी कष्ट तो लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते। भोगना ही पड़ता है। द्विजो ! फिर कर्मवश जीव यदि यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें इस पृथ्वीपर जन्म लेता है, तो बाल्यावस्था आदिके नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र अनेक दोषोंसे उसे पीडा सहनी पड़ती है। फिर कथाओका ही श्रवण करना चाहिये। द्विजो ! यदि युवावस्थामें पहुँचनेपर यदि दरिद्रता हुई तो उससे बहुत निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको कष्ट होता है। भारी रोगसे तथा अनावृष्टि आदि सुनना उचित है; उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी आपत्तियोंसे भी केश उठाना पड़ता है। वृद्धावस्था में श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हषीकेश मनके इधर-उधर भटकनेसे जो कष्ट उसे प्राप्त होता है, यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले उसका वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर व्याधिके कारण भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की समयानुसार मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है । संसारमें मृत्युसे हैं। सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय बढ़कर दूसरे किसी दुःखका अनुभव नहीं होता।। यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं तत्पश्चात् जीव अपने कर्मवश यमलोकमें पीड़ा मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं। भोगता है; वहाँ अत्यन्त दारुण यातना भोगकर फिर जो हृदयसे सेवन करने योग्य, संतोंके द्वारा बारंबार संसारमें जन्म लेता है। इस प्रकार वह बारंबार जन्मता सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं, और मरता तथा मरता और जन्मता रहता है। जिसने श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप भगवान् गोविन्दके चरणोंकी आराधना नहीं की है, पामरो ! अरे निष्ठुर मनुष्यो ! क्यों स्वयं अपने-आपको उसीकी ऐसी दशा होती है। गोविन्दके चरणोंकी रौरव नरकमें गिरा रहे हो। यदि तुम अनायास ही आराधना न करनेवाले मनुष्यकी बिना कष्टके मृत्यु नहीं दुःखोके पार जाना चाहते हो तो गोविन्दके चारु चरणोंका होती तथा बिना कष्टके उसे जीवन भी नहीं मिलता। सेवन किये बिना नहीं जा सकोगे। भगवान् श्रीकृष्णके यदि घरमें धन हो तो उसे रखनेसे क्या फल हुआ। जिस युगल चरण मोक्षके हेतु हैं; उनका भजन करो। मनुष्य समय यमराजके दूत आकर जीवको खींचते हैं, उस कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस समय धन क्या उसके पीछे-पीछे जाता है? अतः बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रह ब्राह्मणोंके सत्कारमें लगाया हुआ धन ही सब प्रकारके
* किं सुखं लभते जन्तुरसद्वार्तावधारणे । हरेरद्भुतलीलस्य लीलाख्यान न सज्जते ।।
तद्विचित्रकथा लोक नाना विषयमिश्रिताः । श्रोतव्या यदि वैनणां विषये सजते मनः॥ निर्वाणे यदि वा चितं श्रोतव्या तदपि द्विजाः । हेलया अवणाचापि तस्य तुष्टी भवेद्धरिः ॥ निस्क्रियाऽपि हृषीकशा नाना कर्म चकार सः । शुश्रूषणां हितार्थाय भक्तानां भक्तवत्सलः॥ न लभ्यते कर्मणापि वाजपेयशतादिना । राजसूयायुतेनापि यथा भक्त्या स लभ्यते ॥ यत्पदं चेतसा सव्यं सद्धिराचरितं मुहुः । भवाब्धितरण सारमाश्रयध्यं हरेः पदम् ॥ रे रे विषयसंलुब्धाः पामरा निष्ठुरा नराः । गैरवे हि किमात्मानमात्मना पातयिष्यथ । विना गोविन्दसौम्याधिसवनं मा गमिष्यथ । अनायासेन दुःखाना तरण यदि वाञ्छथ ॥ भजध्वं कृष्णचरणावपुनर्भवकारणे । कुत एवागतो मर्त्यः कुत एव पुनर्बजेत् ॥ एतद्विचार्य मतिमानाश्रयेद् धर्मसंग्रहम् । (६१ । ७५-८४)