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पातालखण्ड]
• शेषजीका रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना .
कथारूपी महासागरकी थाह लगानेके लिये मेरे-जैसे जानेपर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको बड़ा सुख मिला। मशक-समान तुच्छ जीवको कितनी शक्ति है। तथापि मैं वे आनन्द-मग्न होकर दासकी भाँति भगवान्के चरणों में अपनी शक्तिके अनुसार आपसे श्रीराम-कथाका वर्णन पड़ गये और उनकी स्तुति करने लगे। करूँगा; क्योंकि अत्यन्त विस्तृत आकाशमें भी तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी धर्मात्मा विभीषणको पक्षी अपनी गमन-शक्तिके अनुसार उड़ते ही हैं। लङ्काके राज्यपर स्थापित करके सीताके साथ पुष्पक श्रीरघुनाथजीका चरित्र करोड़ों श्लोकोंमें वर्णित है। विमानपर आरूढ़ हुए। उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव और जिनकी जैसी बुद्धि होती है, वे वैसा ही उसका वर्णन हनुमान् आदि भी विमानपर जा बैठे। उस समय करते हैं। जैसे अग्निके सम्पर्कसे सोना शुद्ध हो जाता है, भगवान्के विरहके भयसे विभीषणके मनमें भी साथ उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीकी उत्तम कीर्ति मेरी बुद्धिको भी जानेकी उत्कण्ठा हुई और उन्होंने अपने मन्त्रियोंके साथ निर्मल बना देगी।
श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इसके बाद लङ्का और सूतजी कहते हैं-महर्षियो! मुनिवर अशोक-वाटिकापर दृष्टि डालते हुए भगवान् श्रीराम तुरंत वात्स्यायनसे यों कहकर भगवान् शेषने ध्यानस्थ हो ही अयोध्यापुरीकी ओर प्रस्थित हुए। साथ ही ब्रह्मा अपनी आँखें बंद कर ली और ज्ञानदृष्टिके द्वारा उस आदि देवता भी अपने-अपने विमानोंपर बैठकर यात्रा लोकोत्तर कल्याणमयी कथाका अवलोकन किया। फिर करने लगे। उस समय भगवान् श्रीराम कानोंको सुख तो अत्यन्त हर्षके कारण उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया पहुंचानेवाली देव-दुन्दुभियोंकी मधुर ध्वनि सुनते तथा और वे गद्दवाणीसे युक्त होकर दशरथ-नन्दन मार्गमें सीताजीको अनेकों आश्रमोंसे युक्त तीर्थों, मुनियों, श्रीरघुनाथजीको विशद कथाका वर्णन करने लगे। मुनि-पुत्रों तथा पतिव्रता मुनि-पलियोंका दर्शन कराते हुए
भगवान् शेष बोले-वात्स्यायनजी ! देवता चल रहे थे। परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीने पहले और दानवोंको दुख देनेवाले लङ्कापति रावणके मारे लक्ष्मणके साथ जिन-जिन स्थानोंपर निवास किया था,
वे सभी सीताजीको दिखाये। इस प्रकार उन्हें मार्गके स्थानोंका दर्शन कराते हुए श्रीरामचन्द्रजीने अपनी पुरी अयोध्याको देखा; फिर उसके निकट नन्दिग्रामपर दृष्टिपात किया, जहाँ भाईके वियोग-जनित अनेकों दुःखमय चिह्नोंको धारण करके धर्मका पालन करते हुए राजा भरत निवास कर रहे थे। उन दिनों वे जमीनमें गड्ढा खोदकर उसीमें सोया करते थे। ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक मस्तकपर जटा और शरीरमें वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी चर्चा करते हुए दुःखसे आतुर रहते थे। अन्नके नामपर तो वे जो भी नहीं ग्रहण करते थे तथा पानी भी बारंबार नहीं पीते थे। ____ जब सूर्यदेवका उदय होता, तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते-'जगत्को नेत्र प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य ! आप देवताओंके स्वामी हैं; मेरे महान् पापको हर लीजिये [हाय ! मुझसे बढ़कर पापी कौन होगा] । मेरे