________________ 420 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण मनुष्योंका नहीं। दृढ़ बन्धोक्ति (सुश्लिष्ट प्रबन्धरचना या प्रजाको सदा ही श्रीरामचन्द्रजीसे लाड़-प्यार प्राप्त कमल-बन्ध आदि श्लोकोंकी रचना) केवल पुस्तकोंमें होता था। अपने द्वारा लालित प्रजाका निरन्तर ही उपलब्ध होती थी; लोकमें कोई सुदृढ़ बन्धनमें बाँधा लालन-पालन करते हुए वे उस सम्पूर्ण देशकी रक्षा या कैद किया गया हो-ऐसी बात नहीं सुनी जाती थी। करते थे। श्रीरामके दरबारमें अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओंकी प्रार्थनासे भगवानका अवतार लेना शेषजी कहते हैं-एक बार एक नीचके मुखसे खड़े हो गये। फिर स्वागत-सत्कारके द्वारा उन्हें सम्मानित श्रीसीताजीके अपमानकी बात सुनकर-धोबीके करके भगवान्ने उनकी कुशल पूछी और जब वे आक्षेपपूर्ण वचनसे प्रभावित होकर श्रीरघुनाथजीने सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो अपनी पत्नीका परित्याग कर दिया। इसके बाद वे श्रीरघुनन्दनने उनसे वार्तालाप आरम्भ किया। .. सीतासे रहित एकमात्र पृथ्वीका, जो उनके आदेशसे ही श्रीरामने कहा-महाभाग कुम्भज ! आपका सुरक्षित थी, धर्मानुसार पालन करने लगे। एक दिन स्वागत है। तपोनिधे ! निश्चय ही आज आपके दर्शनसे महामति श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें बैठे हुए थे, इसी हम सब लोग कुटुम्बसहित पवित्र हो गये। इस समय मुनियोंमें श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि, जो बहुत बड़े भूमण्डलपर कहीं कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो आपकी महात्मा थे, वहाँ पधारे। समुद्रको सोख लेनेवाले उन तपस्यामें विघ्न डाल सके / आपकी सहधर्मिणी लोपामुद्रा भी बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं, जिनके पातिव्रत्य-धर्मके प्रभावसे सब कुछ शुभ ही होता है। मुनीश्वर ! आप धर्मके साक्षात् विग्रह और करुणाके सागर हैं। लोभ तो आपको छू भी नहीं गया है। बताइये, मैं आपका कौन-सा कार्य करूं? महामुने! यद्यपि आपकी तपस्याके प्रभावसे ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है, आपके संकल्पमात्रसे ही बहुत कुछ हो सकता है; तथापि मुझपर कृपा करके ही मेरे लिये कोई सेवा बतलाइये। शेषजी कहते है-मुने! राजाओंके भी राजा परम बुद्धिमान् जगद्गुरु श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर महर्षि अगस्त्यजी अत्यन्त विनययुक्त वाणीमें बोले।। अगस्त्यजीने कहा-स्वामिन् ! आपका दर्शन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; यही सोचकर मैं यहाँ आया हूँ। राजाधिराज ! मुझे अपने दर्शनके लिये ही आया हुआ समझिये। कृपानिधे ! आपने रावण नामक अद्भुत महर्षिको आया देख महाराज श्रीरामचन्द्रजी अर्घ्य असुरका, जो समस्त लोकोंके लिये कण्टकरूप था, वध लिये सम्पूर्ण सभासदों तथा गुरु वसिष्ठके साथ उठकर कर डाला—यह बहुत अच्छा हुआ। अब देवगण