________________ पातालखण्ड ] * यज्ञ-सम्बन्धी अवका छोड़ा जाना, श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये उपदेश करना. 427 ............... ............. है।* गृहस्थाश्रममें रहनेवाले पुरुषको अत्र, जल, दूध, दही खाना सर्वथा निषिद्ध है। आगमें अपने पैर न सेंके, मूल अथवा फल आदिके द्वारा अतिथिका सत्कार करना उसमें कोई अपवित्र वस्तु न डाले। किसी भी जीवकी चाहिये। आया हुआ अतिथि सत्कार न पाकर जिसके हिंसा तथा दोनों सन्ध्याओंके समय भोजन न करे। घरसे निराश लौट जाता है, वह गृहस्थ जीवनभरके रात्रिको खूब पेट भरके भोजन करना उचित नहीं है। कमाये हुए पुण्यसे क्षणभरमें वंचित हो जाता है। पुरुषको नाचने, गाने और बजानेमें आसक्ति नहीं रखनी गृहस्थको उचित है कि वह बलिवैश्वदेव-कर्मके द्वारा चाहिये। काँसके बर्तनमें पैर धुलाना निषिद्ध है। दूसरेके देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग देकर शेष पहने हुए कपड़े और जूते न धारण करे / फूटे अथवा अनका भोजन करे, वही उसके लिये अमृत है। जो दूसरेके जूठे किये हुए बर्तनमें भोजन न करे, भीगे पैर केवल अपना पेट भरनेवाला है जो अपने ही लिये न सोये। हाथ और मुंहके जूठे रहते हुए कहीं न जाय। भोजन बनाता और खाता है, वह पापका ही भोजन सोते-सोते न खाय / उच्छिष्ट-अवस्थामें मस्तकका स्पर्श करता है। तेलमें षष्ठी और अष्टमीको तथा मांसमें सदा न करे। दूसरोंके गुप्त भेद न खोले। इस प्रकार ही पापका निवास है। चतुर्दशीको क्षौर-कर्म तथा गृहस्थ-धर्मका समय पूरा करके वानप्रस्थ-आश्रममें अमावस्याको स्त्री-समागमका त्याग करना चाहिये। प्रवेश करे। उस समय इच्छा हो तो वैराग्यपूर्वक स्त्रीके रजस्वला-अवस्थामें स्त्रीके सम्पर्कसे दूर रहे। पत्नीके साथ रहे, अथवा स्त्रीको साथ न रखकर उसे पुत्रोंके साथ भोजन नं करे। एक वस्त्र पहनकर तथा चटाईके अधीन सौप दे। वानप्रस्थ-धर्मका पूर्ण पालन करनेके आसनपर बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। अपनेमें पश्चात् विरक्त हो जाय-संन्यास ले ले।। तेजकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको भोजन करती हुई वात्स्यायनजी! उस समय महर्षियोंने उपर्युक्त स्त्रीकी ओर नहीं देखना चाहिये। मुँहसे आगको न फेंके, प्रकारसे अनेकों धर्मोका वर्णन किया तथा सम्पूर्ण नंगी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले। बछड़ेको दूध पिलाती जगत्के महान् हितैषी भगवान् श्रीरामने उन सबको हुई गौको न छेड़े। दूसरेको इन्द्र-धनुष न दिखावे / रातमें ध्यानपूर्वक सुना। यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना शेषजी कहते है-मुने ! इस प्रकार भगवान् समय आ गया है, जब कि यज्ञके लिये निश्चित किये हुए श्रीराम ऋषियोंके मुखसे कुछ कालन्तक धर्मकी व्याख्या अश्वकी भलीभांति पूजा करके उसे पृथ्वीपर भ्रमण सुनते रहे; इतनेमें वसन्तका समय उपस्थित हुआ जब करनेके लिये छोड़ा जाय। इसके लिये सामग्री एकत्रित कि महापुरुषोंके यज्ञ आदि शुभ कर्मोका प्रारम्भ होता है। हो, अच्छे-अच्छे ब्राह्मण बुलाये जायें तथा स्वयं आप ही वह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठने सम्पूर्ण उन ब्राह्मणोंकी यथोचित पूजा करें। दीनों, अंधों और जगत्के सम्राट् श्रीरामचन्द्रजीसे यथोचित वाणीमें दुःखियोंका विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहनेको स्थान दें कहा-'महाबाहु रघुनाथजी! अब आपके लिये वह और उनके मनमें जिस वस्तुके पानेकी इच्छा हो, वही * वाणिज्यं नृपतेः सेवा वेदानध्ययन तथा / कुविवाहः क्रियालोपः कुलपातनहेतवः // (949) + अनर्चितोऽतिथिर्गेहाद् भग्नाशो यस्य गच्छति / आजन्मसञ्चितात् पुण्यात् क्षणात् स हि बहिर्भवेत्॥ (9 / 51) + षष्ठयाटम्योक्शेित् पापं तैले मासे सदैव हि / चतुर्दश्यां तथामायां त्यजेत क्षुरमानाम्॥ (9 / 53)