________________ 428 * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण उन्हें दान करें। आप सुवर्णमयी सीताके साथ यज्ञकी यह कि उस अश्वका सारा शरीर ही नाना प्रकारके दीक्षा लेकर उसके नियमोंका पालन करें-पृथ्वीपर शोभासाधनोंसे सम्पन्न था। जिस प्रकार देवतालोग सोवें, ब्रह्मचारी रहें तथा धन-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग सेवाके योग्य श्रीहरिकी सब ओरसे सेवा करते हैं। उसी करें। आपके कटिभागमें मेखला सुशोभित हो, आप प्रकार बहुत-से सैनिक उस घोड़ेके आगे-पीछे और हरिणका सींग, मृगचर्म तथा दण्ड धारण करें तथा सब बीचमें रहकर उसकी रक्षा कर रहे थे। प्रकारके सामान और द्रव्य एकत्रित करके यज्ञका तदनन्तर सेनापति कालजित्ने अपनी विशाल आरम्भ करें।' सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर जनमहर्षि वसिष्ठके ये उत्तम और यथार्थ वचन सुनकर समुदायसे भरी हुई वह विशाल वाहिनी छत्रोंसे सूर्यको परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे अभिप्राययुक्त ओटमें करके अपनी छावनीसे निकली। उस सेनाके बात कही। सभी श्रेष्ठ वीर श्रीरघुनाथजीके यज्ञके लिये सुसज्जित हो श्रीराम बोले-लक्ष्मण ! मेरी बात सुनो और गर्जते तथा युद्धके लिये उत्साह प्रकट करते हुए बड़े सुनकर तुरंत उसका पालन करो। जाओ, प्रयत्न करके हर्षमें भरकर चले। सभी सैनिक हाथोंमें धनुष, पाश अश्वमेध यज्ञके लिये उपयोगी अश्व ले आओ। और खड्ग धारण किये सैनिक-शिक्षाके अनुसार स्फुट शेषजी कहते हैं-श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर गतिसे चलते हुए बड़ी तेजीके साथ महाराज श्रीरामके शत्रु-विजयी लक्ष्मणने सेनापतिसे कहा-'वीर ! मैं पास उपस्थित हुए। वह घोड़ा भी आकाशमें उछलता तुम्हें एक अत्यन्त प्रिय वचन सुना रहा हूँ, सुनो; तथा पृथ्वीको अपनी टापसे खोदता हुआ धीरे-धीरे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञाके अनुसार शीघ्र ही हाथी, घोड़े, यश-चिह्नसे युक्त मण्डपके पास पहुँचा / घोड़ेको आया रथ तथा पैदलसे युक्त चतुरङ्गिणी सेना तैयार करो, जो देख श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठको समयोचित कार्य कालकी सेनाका भी विनाश करने में समर्थ हो।' महात्मा करानेके लिये प्रेरित किया। महर्षि वसिष्ठने लक्ष्मणका यह कथन सुनकर कालजित् नामवाले श्रीरामचन्द्रजीको स्वर्णमयी पत्नीके साथ बुलाकर सेनापतिने सेनाको सुसज्जित किया। उस समय अनुष्ठान आरम्भ कराया। उस यज्ञमें वेद-शास्त्रोका लक्ष्मणके आदेशानुसार सजकर आये हुए अश्वमेध विवेचन करनेवाले बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठ, जो यज्ञके अश्वकी बड़ी शोभा हुई। एक श्रेष्ठ पुरुषने उसकी श्रीरघुनाथजीके वंशके आदि गुरु थे, आचार्य हुए। बागडोर पकड़ रखी थी। दस ध्रुवक (चिह्न-विशेष) तपोनिधि अगस्त्यजीने ब्रह्माका [कृताकृतावेक्षणरूप] उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। अपने छोटे-छोटे रोएंके कार्य सँभाला। वाल्मीकि मुनि अध्वर्यु बनाये गये और कारण भी वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। उसके गलेमें कण्व द्वारपाल। उस यज्ञ-मण्डपके आठ द्वार थे जो घुघुरू पहनाये गये थे, जो एक-दूसरेसे मिले नहीं थे। तोरण आदिसे सुसज्जित होनेके कारण बहुत सुन्दर विस्तृत कण्ठ-कोशमें मणि सुशोभित थी। मुखकी दिखायी देते थे। वात्स्यायनजी ! उनमेंसे प्रत्येक द्वारपर कान्ति भी बड़ी विशद थी और उसके दोनों कान दो-दो मन्त्रवेता ब्राह्मण बिठाये गये थे। पूर्व द्वारपर छोटे-छोटे तथा काले थे। घासके ग्राससे उसका मुँह मुनिश्रेष्ठ देवल और असित थे। दक्षिण द्वारपर तपस्याके बड़ा सुहावना जान पड़ता था और चमकीले रत्नोंसे भंडार महात्मा कश्यप और अत्रि विराजमान थे। पश्चिम उसको सजाया गया था। इस प्रकार सज-धजकर द्वारपर श्रेष्ठ महर्षि जातूकर्ण्य और जाजलिको उपस्थिति मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित हो वह अश्व बाहर थी तथा उत्तर द्वारपर द्वित और एकत नामके दो तपस्वी निकला। उसके ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। दोनों मुनि विराज रहे थे। ओरसे दो सफेद चैवर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सारांश - ब्रह्मन् ! इस प्रकार द्वारकी विधि पूर्ण करके महर्षि