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स्वर्गखण्ड]
• संन्यास-आश्रमके धर्मका वर्णन •
करे। किसी विशेष मन्त्र, गायत्रीमन्त्र तथा रुद्राष्टाध्यायीका आरम्भ करके निरन्तर उपवास करे अथवा ब्रह्मार्पणजप करता रहे अथवा वह महाप्रस्थान आमरण यात्रा विधिमें स्थित होकर और कोई ऐसा ही कार्य करे।
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संन्यास-आश्रमके धर्मका वर्णन
व्यासजी कहते हैं-इस प्रकार आयुके तीसरे चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए आहारको भागको वानप्रस्थ-आश्रममें व्यतीत करके क्रमशः चतुर्थ जीते और भोजनके लिये बस्तीसे अन्न माँग लाया करे । भागको संन्यासके द्वारा बिताये। उस समय द्विजको वह अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें अनुरक्त हो सब ओरसे उचित है कि वह अग्नियोंको अपनेमें स्थापित करके निरपेक्ष रहे और भोग्य वस्तुओंका परित्याग कर दे। परिव्राजक-संन्यासी हो जाय और योगाभ्यासमें तत्पर, केवल आत्माको ही सहायक बनाकर आत्मसुखके लिये शान्त तथा ब्रह्मविद्या-परायण रहे। जब मनमें सब इस संसारमें विचरता रहे। जीवन या मृत्यु-किसीका वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय, उस समय संन्यास अभिनन्दन न करे। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी लेनेकी इच्छा करे। इसके विपरीत आचरण करनेपर वह प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार संन्यासी कालकी ही गिर जाता है। प्राजापत्य अथवा आग्नेयी इष्टिका अनुष्ठान प्रतीक्षा करे । उसे कभी अध्ययन, प्रवचन अथवा श्रवण करके मनकी वासना धुल जानेपर जितेन्द्रियभावसे नहीं करना चाहिये। ब्रह्माश्रम-संन्यासमें प्रवेश करे । संन्यासी तीन प्रकारके इस प्रकार ज्ञानपरायण योगी ब्रह्मभावका बताये गये है-कोई तो ज्ञानसंन्यासी होते हैं, कुछ अधिकारी होता है। विद्वान् संन्यासी एक वस्त्र धारण करे वेदसंन्यासी होते हैं तथा कुछ दूसरे कर्मसंन्यासी होते हैं। अथवा केवल कौपीन धारण किये रहे । सिर मुंडाये रहे जो सब ओरसे मुक्त, निर्द्वन्द्व और निर्भय होकर आत्मामें या बाल बढ़ाये रखे। त्रिदण्ड धारण करे, किसी वस्तुका ही स्थित रहता है, उसे 'ज्ञानसंन्यासी' कहा जाता है। जो संग्रह न करे। गेरुए रङ्गका वस्त्र पहने और सदा कामना और परिग्रहका त्याग करके मुक्तिको इच्छासे ध्यानयोगमें तत्पर रहे। गाँवके समीप किसी वृक्षके नीचे जितेन्द्रिय होकर सदा वेदका ही अभ्यास करता रहता है, अथवा देवालयमें रहे। शत्रु और मित्रमें तथा मान और वह 'वेदसंन्यासी' कहलाता है। जो द्विज अग्निको अपमानमें समानभाव रखे। सदा भिक्षासे ही जीवनअपनेमें लीन करके स्वयं ब्रह्ममें समर्पित हो जाता है, निर्वाह करे। कभी एक स्थानके अन्नका भोजन न करे। उसे महायज्ञपरायण 'कर्मसंन्यासी' जानना चाहिये।* जो संन्यासी मोहवश या और किसी कारणसे एक इन तीनोंमें ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ माना गया है। उस विद्वान्के जगहका अन्न खाने लगता है, धर्मशास्त्रोंमें उसके लिये कोई कर्तव्य या आश्रम-चिह्न आवश्यक नहीं उद्धारका कोई उपाय नहीं देखा गया है। संन्यासीका रहता। संन्यासीको ममता और भयसे रहित, शान्त एवं चित्त राग-द्वेषसे रहित होना चाहिये। उसे मिट्टीके ढेले, निर्द्वन्द्व होना चाहिये। वह पत्ता खाकर रहे, पुराना कौपीन पत्थर और सुवर्णको एक-सा समझना चाहिये तथा पहने अथवा नंगा रहे। उसे ज्ञानपरायण होना प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहना चाहिये। वह मौनभावका
* ज्ञानसन्यासिनः केचिद् वेदर्सन्यासिनोऽपरे । कर्मसंन्यासिनस्त्वन्ये त्रिविधाः परिकीर्तिताः ।।
यः सर्वत्र विनिर्मुक्तो निईन्द्रव निर्भयः । प्रोच्यते ज्ञानसंन्यासी आत्मन्येव व्यवस्थितः ॥ वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं निराशीनिष्परिग्रहः । प्रोच्यते वेदसंन्यासी मुमुक्षुर्विजितेन्द्रियः ।। यस्त्वग्निमात्मसात् कृत्वा ब्रह्मार्पणपणे द्विजः । ज्ञेयः स कर्मसंन्यासी महायज्ञपरायणः ॥ (५९।५-८)