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स्वर्गखण्ड]
• वानप्रस्थ-आश्रमके धर्मका वर्णन .
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करता, उसका सर्वस्व छीनकर राजा उसे राज्यसे बाहर संतोषसे पा लेता है।* दान लेनेकी रुचि न रखे। निकाल दे। जो अकालके समय ब्राह्मणोंके मरते जीवन-निर्वाहके लिये जितना आवश्यक है, उससे रहनेपर भी अन्न आदिका दान नहीं करता, वह ब्राह्मण अधिक धन ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त निन्दित है। ऐसे ब्राह्मणसे दान नहीं लेना चाहिये तथा होता है। जो संतोष नहीं धारण करता, वह स्वर्गलोकको उसके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये। राजाको पानेका अधिकारी नहीं है। वह लोभवश प्राणियोको उचित है वह उसके शरीरमें कोई चिह्न अङ्कित करके उद्विग्न करता है; चोरकी जैसी स्थिति है, वैसी ही उसकी उसे अपने राज्यसे बाहर कर दे। द्विजोत्तमगण ! जो भी है। गुरुजनों और भृत्यजनोंके उद्धारकी इच्छा ब्राह्मण स्वाध्यायशील, विद्वान, जितेन्द्रिय तथा सत्य रखनेवाला पुरुष देवताओं और अतिथियोंका तर्पण
और संयमसे युक्त हों, उन्हें दान करना चाहिये। जो करनेके लिये सब ओरसे प्रतिग्रह ले; किन्तु उसे अपनी सम्मानपूर्वक देता और सम्मानपूर्वक ग्रहण करता है, वे तृप्तिका साधन न बनाये-स्वयं उसका उपभोग न करे। दोनों स्वर्गमें जाते हैं। इसके विपरीत आचरण करनेपर इस प्रकार गृहस्थ पुरुष मनको वशमें करके देवताओं उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है, यदि अविद्वान् ब्राह्मण और अतिथियोंका पूजन करता हुआ जितेन्द्रियभावसे रहे चाँदी, सोना, गौ, घोड़ा, पृथिवी और तिल आदिका तो वह परमपदको प्राप्त होता है। दान ग्रहण करे तो सूखे ईधनकी भाँति भस्म हो जाता तदनन्तर गृहस्थ पुरुषको उचित है कि पत्नीको है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह उत्तम ब्राह्मणोंसे पुत्रोंके हवाले कर दे और स्वयं वनमें जाकर तत्त्वका ज्ञान धन लेनेकी इच्छा रखे। क्षत्रिय और वैश्योंसे भी वह प्राप्त करके सदा एकाग्रचित्त हो उदासीन भावसे अकेला धन ले सकता है; किन्तु शूद्रसे तो वह किसी प्रकार विचरे। द्विजवरो! यह गृहस्थोंका धर्म है, जिसका मैंने धन न ले।
आपलोगोंसे वर्णन किया है। इसे जानकर नियमपूर्वक अपनी जीविका-वृत्तिको कम करनेकी ही इच्छा आचरणमें लाये और दूसरे द्विजोंसे भी इसका अनुष्ठान रखे, धन बढ़ानेकी चेष्टा न करे; धनके लोभमें फंसा कराये। जो इस प्रकार गृहस्थधर्मके द्वारा निरन्तर एक, हुआ ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे ही भ्रष्ट हो जाता है। सम्पूर्ण अनादि देव ईश्वरका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको पढ़कर और सब प्रकारके यज्ञोंका पुण्य पाकर भूतयोनियोंका अतिक्रमण करके परमात्माको प्राप्त होता भी ब्राह्मण उस गतिको नहीं पा सकता, जिसे वह है, फिर संसारमें जन्म नहीं लेता।
वानप्रस्थ-आश्रमके धर्मका वर्णन
र व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार पूर्वाह्न-भागमें वनमें जाय और वहाँ नियमोंका पालन आयुके दो भाग व्यतीत होनेतक गृहस्थ-आश्रममें रहकर करते हुए एकाग्रचित्त होकर तपस्या करे। प्रतिदिन पत्नी तथा अग्निसहित वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे फल-मूलका पवित्र आहार ग्रहण करे। जैसा अपना अथवा पत्नीका भार पुत्रोंपर रखकर या पुत्रके पुत्रको देख आहार हो, उसीसे देवताओं और पितरोंका पूजन किया लेनेके पश्चात् जरा-जीर्ण कलेवरको लेकर वनके लिये करे। नित्यप्रति अतिथि-सत्कार करता रहे । स्नान करके प्रस्थान करे। उत्तरायणका श्रेष्ठ काल आनेपर शुक्लपक्षके देवताओंकी पूजा करे । घरसे लाकर एकाग्रचित्त हो आठ
* वेदानधीत्य सकलान् यज्ञांशावाप्य सर्वशः। न तो गतिमवाप्रोति संतोषाद् यामवाप्नुयात् ॥ (५७१७१) । यस्तु याति न संतोषं न स स्वर्गस्य भाजनम् । उद्वेजयति भूतानि यथा चौरस्तथैव सः ।। (५७१७३)