________________
स्वर्गखण्ड ]
---------
•
संन्यासीके नियम •
चिन्तन करे। परमेश्वर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, अज्ञानमय अन्धकारसे परे विराजमान, सबके आधार, अव्यक्तस्वरूप, आनन्दमय, ज्योतिर्मय अविनाशी, प्रकृति और पुरुषसे अतीत, आकाशकी भाँति निर्लेप, परम कल्याण मय, समस्त भावोंकी चरम सीमा, सबका शासन करने वाले तथा ब्रह्मरूप हैं।
1
तदनन्तर प्रणव जपके पश्चात् आत्माको आकाश स्वरूप परमात्मामें लीन करके उनका इस प्रकार ध्यान करे - 'परमात्मदेव सबके ईश्वर, हृदयाकाशके बीच विराजमान, समस्त भावोंकी उत्पत्तिके कारण, आनन्दके एकमात्र आधार तथा पुराणपुरुष श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाला पुरुष भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है जो समस्त प्राणियोंका जीवन है, जहाँ जगत्का लय होता है तथा मुमुक्षु पुरुष जिसे ब्रह्मका सूक्ष्म आनन्द समझते हैं, उस परम व्योमके भीतर केवल - अद्वितीय ज्ञान स्वरूप ब्रह्म स्थित है, जो अनन्त, सत्य एवं ईश्वररूप है।' इस प्रकार ध्यान करके मौन हो जाय। यह संन्यासियोंके लिये गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय ज्ञानका वर्णन किया गया। जो सदा इस ज्ञानमें स्थित रहता है, वह इसके द्वारा ईश्वरीय योगका अनुभव करता है। इसलिये संन्यासीको उचित है कि वह सदा ज्ञानके अभ्यासमें तत्पर और आत्मविद्यापरायण होकर ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका चिन्तन करे, जिससे भव-बन्धनसे छुटकारा मिले।
४०१
पहले आत्माको सब (दृश्य-पदार्थों) से पृथक्, केवल- अद्वितीय, आनन्दमय, अक्षर- अविनाशी एवं ज्ञानस्वरूप जान ले; इसके बाद उसका ध्यान करे। जिनसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें जानकर मनुष्य पुनः इस संसारमें जन्म नहीं लेता, वे परमात्मा इसलिये ईश्वर कहलाते हैं कि वे सबसे परे स्थित हैं— सबके ऊपर अध्यक्षरूपसे विराजमान हैं। उन्होंके भीतर उस शाश्वत, कल्याणमय अविनाशी ब्रह्मका ज्ञान होता है, जो इस दृश्य जगत्के रूपमें प्रत्यक्ष और स्वस्वरूपसे परोक्ष हैं, वे ही महेश्वर देव हैं। संन्यासियोंके जो व्रत बताये गये हैं, वैसे ही उनके भी व्रत हैं उन व्रतोंमेंसे एक एकका उल्लङ्घन करनेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
संन्यासी यदि कामनापूर्वक स्त्रीके पास चला जाय तो एकाग्रचित्त होकर प्रायश्चित्त करे। उसे पवित्र होकर प्राणायामपूर्वक सांतपन' - व्रत करना चाहिये। सांतपनके बाद चित्तको एकाग्र करके शौच संतोषादि नियमोंका पालन करते हुए वह कृच्छ्रवतका अनुष्ठान करे। तदनन्तर आश्रममें आकर पुनः आलस्यरहित हो भिक्षुरूपसे विचरता रहे। असत्यका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह झूठका प्रसङ्ग बड़ा भयङ्कर होता है। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला संन्यासी यदि झूठ बोल दे तो उसे उसके प्रायश्चित्तके लिये एक रात
१- ओंकारान्तेऽथ चात्मानं समाप्य परमात्मनि । आकाशे देवमीशानं ध्यायेदाकाशमध्यगम् ॥ कारण सर्वभावानामानन्दैकसमाश्रयम्। पुराणपुरुषं विष्णुं ध्यायन्मुच्येत बन्धनात् ॥ जीवन सर्वभूतानां यत्र लोकः प्रलीयते । आनन्दं ब्रह्मणः सूक्ष्मं यत्पश्यन्ति मुमुक्षवः ॥ तन्मध्ये निहितं ब्रह्म केवलं ज्ञानलक्षणम्। अनन्तं सत्यमीशानं विचिन्त्यासीत वाग्यतः ॥ गुह्याद् गुह्यतमं ज्ञानं यतीनामेतदीरितम् । योऽत्र तिष्ठेत्सदानेन सोऽश्रुते योगमैश्वरम् ॥ तस्माज्ज्ञानरतो नित्यमात्मविद्यापरायणः । ज्ञानं समभ्यसेद् ब्रह्म येन मुच्येत बन्धनात् ॥ मत्वा पृथक् तमात्मानं सर्वस्मादेव केवलम् । आनन्दमक्षरं ज्ञानं ध्यायेत् च ततः परम् ॥ यस्माद् भवन्ति भूतानि यज्ज्ञात्वा नेह जायते ।
स तस्मादीश्वरो देवः परस्ताद् योऽधितिष्ठति । यदन्तरे तद्गमनं शाश्वतं
शिवमव्ययम् ॥
य इदं स्वपरोक्षस्तु स देवः स्यान्महेश्वरः । व्रतानि यानि भिक्षूणां तथैवास्य व्रतानि च । (६० । ११-१२, १४ - २० ) २- गोमूत्र, गोबर, गायका दूध, गायका दही, गायका घी और कुशका जल— इन सबको मिलाकर पी ले तथा उस दिन और कुछ भी न खाय; फिर दूसरे दिन चौबीस घंटे उपवास करे। यह दो दिनका सांतपन व्रत होता है। ३ यदि उपर्युक्त छः वस्तुओंमेंसे एक एकको एक-एक दिन खाकर रहे और सातवें दिन उपवास करे तो यह कृच्छ्र या महासांतपन व्रत कहलाता है।