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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
आकर अन्नको गर्हणा न करे। उसे देखकर हर्ष प्रकट दिये हुए जलके द्वारा अथवा बिना यज्ञोपवीतके भी करे। मनमें प्रसन्न हो और सब प्रकारसे उसका आचमन करना निषिद्ध है। खड़ाऊँ पहने हुए अथवा अभिनन्दन करे। अधिक भोजन आरोग्य, आयु और घुटनोंके बाहर हाथ करके भी आचमन नहीं करना स्वर्गलोककी प्राप्तिमें हानि पहुँचानेवाला है; वह पुण्यका चाहिये। बोलते, हँसते, किसीकी ओर देखते तथा नाशक और लोक-निन्दित है। इसलिये उसका परित्याग बिछौनेपर लेटे हुए भी आचमन करना निषिद्ध है। जिस कर देना चाहिये। पूर्वाभिमुख होकर अथवा सूर्यकी ओर जलको अच्छी तरह देखा न गया हो, जिसमें फेन आदि मुँह करके अन्नका भोजन करना उचित है। उत्तराभिमुख हों, जो शूद्रके द्वारा अथवा अपवित्र हाथोंसे लाया गया होकर कदापि भोजन न करे। यह भोजनकी सनातन हो तथा जो खारा हो, ऐसे जलसे भी आचमन करना विधि है। भोजन करनेवाला पुरुष हाथ-पैर धो, शुद्ध अनुचित है। आचमनके समय अँगुलियोंसे शब्द न करे, स्थानमें बैठकर पहले जलसे आचमन करे; फिर मनमें दूसरी कोई बात न सोचे। हाथसे बिलोड़े हुए भोजनके पश्चात् भी उसे दो बार आचमन करना चाहिये। जलके द्वारा भी आचमन करना निषिद्ध है। ब्राह्मण उतने
भोजन करके, जल पीकर, सोकर उठनेपर और ही जलसे आचमन करनेपर पवित्र हो सकता है, जो स्रान करनेपर, गलियोंमें घूमनेपर, ओठ चाटने या स्पर्श हृदयतक पहुँच सके। क्षत्रिय कण्ठतक पहुँचनेवाले करनेपर, वस्त्र पहननेपर, वीर्य, मूत्र और मलका त्याग आचमनके जलसे शुद्ध होता है। वैश्य जिह्वासे जलका करनेपर, अनुचित बात कहनेपर, थूकनेपर, अध्ययन आस्वादन मात्र कर लेनेसे पवित्र होता है और स्त्री तथा आरम्भ करनेके समय, खाँसी तथा दम उठनेपर, चौराहे शूद्र जलके स्पर्शमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं। या श्मशानभूमिमें घूमकर लौटनेपर तथा दोनों अंगूठेकी जड़के भीतरकी रेखामें ब्राह्मतीर्थ बताया संध्याओंके समय श्रेष्ठ द्विज आचमन किये होनेपर भी जाता है। अँगूठे और तर्जनीके बीचके भागको पितृतीर्थ फिर आचमन करे । चाण्डालों और म्लेच्छोंके साथ बात कहते हैं। कानी अँगुलीके मूलसे पीछेका भाग करनेपर, स्त्रियों, शूद्रों तथा जूठे मुँहवाले पुरुषोंसे प्राजापत्यतीर्थ कहलाता है। अँगुलियोंका अग्रभाग वार्तालाप होनेपर, जूठे मुँहवाले पुरुष अथवा जूठे देवतीर्थ माना गया है। उसीको आर्षतीर्थ भी कहते हैं। भोजनको देख लेनेपर तथा आँसू या रक्त गिरनेपर भी अथवा अँगुलियोंके मूलभागमें दैव और आर्षतीर्थ तथा आचमन करना चाहिये। अपने शरीरसे स्त्रियोंका स्पर्श मध्यमें आग्रेय तीर्थ है। उसीको सौमिक तीर्थ भी कहते हो जानेपर, अपने बालों तथा खिसककर गिरे हुए हैं। यह जानकर मनुष्य मोहमें नहीं पड़ता। ब्राह्मण सदा वस्त्रका स्पर्श कर लेनेपर धर्मकी दृष्टिसे आचमन करना ब्राह्मतीर्थसे ही आचमन करे अथवा देवतीर्थसे उचित है। आचमनके लिये जल ऐसा होना चाहिये, जो आचमनकी इच्छा रखे। किन्तु पितृ-तीर्थसे कदापि गर्म न हो, जिसमें फेन न हो तथा जो खारा न हो। आचमन न करे। पहले मन और इन्द्रियोको संयममें पवित्रताकी इच्छा रखनेवाला पुरुष सर्वदा पूर्वाभिमुख या रखकर ब्राह्मतीर्थसे तीन बार आचमन करे। फिर उत्तराभिमुख बैठकर ही आचमन करे। उस समय सिर अंगूठेके मूलभागसे मुँहको पोंछते हुए उसका स्पर्श
अथवा गलेको ढके रहे तथा बाल और चोटीको खुला करे। तत्पश्चात् अँगूठे और अनामिका अँगुलियोंसे रखे। कहींसे आया हुआ पुरुष दोनों पैरोंको धोये बिना दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। फिर तर्जनी और अंगूठेके पवित्र नहीं होता। विद्वान् पुरुष सीढ़ीपर या जलमें खड़ा योगसे नाकके दोनों छिद्रोंका, कनिष्ठा और अँगूठेके होकर अथवा पगड़ी बाँधे आचमन न करे। बरसती हुई संयोगसे दोनों कानोंका, सम्पूर्ण अंगुलियोंके योगसे धाराके जलसे अथवा खड़ा होकर या हाथसे उलीचे हुए हृदयका, करतलसे मस्तकका और अँगूठेसे दोनों जलके द्वारा आचमन करना उचित नहीं है। एक हाथसे कंधोंका स्पर्श करे।