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• अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
माताके गोत्रमें जिसका जन्म न हुआ हो, जो अपने गोत्रमें पितरोंका श्राद्ध करनेवाला गृहस्थ मुक्त हो जाता है। उत्पन्न न हुई हो तथा उत्तम शील और पवित्रतासे युक्त माता-पिताके हितमें संलग्न, ब्राह्मणोंके कल्याणमें तत्पर, हो, ऐसी भार्यासे ब्राह्मण विवाह करे। जबतक पुत्रका दाता, याज्ञिक और वेदभक्त गृहस्थ ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित जन्म न हो, तबतक केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ होता है। सदा ही धर्म, अर्थ एवं कामका सेवन करते समागम करे। इसके लिये शास्त्रोंमें जो निषिद्ध दिन हैं, हुए प्रतिदिन देवताओंका पूजन करे और शुद्धभावसे उनका यलपूर्वक त्याग करे। षष्ठी, अष्टमी, पूर्णिमा, उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये। बलिवैश्वदेवके द्वारा द्वादशी तथा चतुर्दशी-ये तिथियाँ स्त्री-समागमके लिये सबको अन्नका भाग दे। निरन्तर क्षमाभाव रखे और निषिद्ध हैं। उक्त नियमोंका पालन करनेसे गृहस्थ भी सबपर दयाभाव बनाये रहे। ऐसे पुरुषको ही गृहस्थ सदा ब्रह्मचारी ही माना जाता है। विवाह-कालकी कहा गया है; केवल घरमें रहनेसे कोई गृहस्थ नहीं अग्निको सदा स्थापित रखे और उसमें अग्निदेवताके हो सकता। निमित्त प्रतिदिन हवन करे। स्नातक पुरुष इन पावन क्षमा, दया, विज्ञान, सत्य, दम, शम, सदा नियमोंका सदा ही पालन करे।
अध्यात्मचिन्तन तथा ज्ञान-ये ब्राह्मणके लक्षण हैं। अपने [वर्ण और आश्रमके लिये विहित] वेदोक्त श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह विशेषतः इन गुणोंसे कर्मका सदा आलस्य छोड़कर पालन करना चाहिये। जो कभी च्युत न हो। अपनी शक्तिके अनुसार धर्मका नहीं करता, वह अत्यन्त भयंकर नरकोंमें पड़ता है। सदा अनुष्ठान करते हुए निन्दित कोको त्याग दे। मोहरूपी संयमशील रहकर वेदोंका अभ्यास करे, पञ्च महायज्ञोंका कीचड़को धोकर परम उत्तम ज्ञानयोगको प्राप्त करके त्याग न करे, गृहस्थोचित समस्त शुभ कार्य और गृहस्थ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है-इसमें संध्योपासन करता रहे। अपने समान तथा अपनेसे बड़े अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। पुरुषोंके साथ मित्रता करे, सदा ही भगवानकी शरणमें निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वधको रहे। देवताओंके दर्शनके लिये यात्रा करे तथा पत्नीका तथा दूसरोंके क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको सह लेना पालन-पोषण करता रहे। विद्वान् पुरुष लोगोंमें अपने क्षमा है। अपने दुःखमें करुणा तथा दूसरोके दुःखमें किये हुए धर्मकी प्रसिद्धि न करे तथा पापको भी न सौहार्द-नेहपूर्ण सहानुभूतिके होनेको मुनियोंने दया छिपाये। सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करते हुए सदा अपने कहा है, जो धर्मका साक्षात् साधन है। छहों अङ्ग, चारों हितका साधन करे। अपनी वय, कर्म, धन, विद्या, उत्तम वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय-शास्त्र, पुराण और कुल, देश, वाणी और बुद्धिके अनुरूप आचरण करते धर्मशास्त्र-ये चौदह विद्याएँ हैं। इन चौदह विद्याओंको हुए सदा विचरण करता रहे। श्रुतियों और स्मृतियोंमें यथार्थरूपसे धारण करना-इसीको विज्ञान समझना जिसका विधान हो तथा साधु पुरुषोंने जिसका भलीभाँति चाहिये। जिससे धर्मकी वृद्धि होती है। विधिपूर्वक सेवन किया हो, उसी आचारका पालन करे; अन्य विद्याका अध्ययन करके तथा धनका उपार्जन कर कार्योंके लिये कदापि चेष्टा न करे। जिसका उसके धर्म-कार्यका अनुष्ठान करे-इसे भी विज्ञान कहते हैं। पिताने अनुसरण किया हो तथा जिसका पितामहोंने सत्यसे मनुष्यलोकपर विजय पाता है, वह सत्य ही परम किया हो, उसी वृत्तिसे वह भी सत्पुरुषोंके मार्गपर चले; पद है। जो बात जैसे हुई हो उसे उसी रूपमें कहनेको उसका अनुसरण करनेवाला पुरुष दोषका भागी नहीं मनीषी पुरुषोंने सत्य कहा है। शरीरकी उपरामताका नाम होता। प्रतिदिन स्वाध्याय करे, सदा यज्ञोपवीत धारण दम है। बुद्धिकी निर्मलतासे शम सिद्ध होता है। अक्षर किये रहे तथा सर्वदा सत्य बोले। क्रोधको जीते और (अविनाशी) पदको अध्यात्म समझना चाहिये; जहाँ लोभ-मोहका परित्याग कर दे। गायत्रीका जप तथा जाकर मनुष्य शोकमें नहीं पड़ता। जिस विद्यासे षड्विध