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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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मन्त्र नहीं है। यह जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। * द्विजवरो! आषाढ़, श्रावण अथवा भादोंकी पूर्णिमाको वेदोंका उपाकर्म बताया गया है अर्थात् उक्त तिथिसे वेदोंका स्वाध्याय प्रारम्भ किया जाता है। जबतक सूर्य दक्षिणायनके मार्गपर चलते हैं, तबतक अर्थात् साढ़े चार महीने प्रतिदिन पवित्र स्थानमें बैठकर ब्रह्मचारी एकाग्रतापूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् द्विज पुष्यनक्षत्रमें घरके बाहर जाकर वेदोंका उत्सर्ग— स्वाध्यायकी समाप्ति करे। शुक्लपक्षमें प्रातःकाल और कृष्णपक्षमें संध्याके समय वेदोंका स्वाध्याय करना चाहिये ।
ओङ्कारस्तत्परं ब्रह्म सावित्री योऽधीते ऽहन्यहन्येतां गायत्री गायत्री वेदजननी गायत्री
वेदोंका अध्ययन, अध्यापन प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाले पुरुषको नीचे लिखे अनध्यायोंके समय सदा ही अध्ययन बंद रखना चाहिये। यदि रातमें ऐसी तेज हवा चले, जिसकी सनसनाहट कानोंमें गूँज उठे तथा दिनमें धूल उड़ानेवाली आँधी चलने लगे तो अनध्याय होता है। यदि बिजलीकी चमक, मेघोंकी गर्जना, वृष्टि तथा महान् उल्कापात हो तो प्रजापति मनुने अकालिक अनध्याय बताया है - ऐसे अवसरोंपर उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक अध्ययन रोक देना उचित है। यदि अग्निहोत्रके लिये अग्नि प्रज्वलित करनेपर इन उत्पातोंका उदय जान पड़े तो वर्षाकालमें अनध्याय समझना चाहिये तथा वर्षासे भिन्न ऋतुमें यदि बादल दीख भी जाय तो अध्ययन रोक देना चाहिये। वर्षाऋतुमें और उससे भिन्न कालमें भी यदि उत्पात सूचक शब्द, भूकम्प, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिर्मय ग्रहोंके उपद्रव हों तो अकालिक (उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक ) अनध्याय समझना चाहिये। यदि प्रातः कालमें होमानि प्रज्वलित होनेपर बिजलीकी गड़गड़ाहट और मेघकी गर्जना सुनायी दे तो सज्योति अनध्याय होता है अर्थात् ज्योति — सूर्यके रहनेतक ही
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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अध्ययन बंद रहता है। इसी प्रकार रातमें भी अग्नि प्रज्वलित होनेके पश्चात् यदि उक्त उत्पात हो तो दिनकी ही भाँति सज्योति-ताराओंके दीखनेतक अनध्याय माना जाता है। धर्मकी निपुणता चाहनेवाले पुरुषोंके लिये गाँवों, नगरों तथा दुर्गन्धपूर्ण स्थानोंमें सदा ही अनध्याय रहता है। गाँवके भीतर मुर्दा रहनेपर, शूद्रकी समीपता होनेपर रोनेका शब्द कानमें पड़नेपर तथा मनुष्योंकी भारी भीड़ रहनेपर भी सदा ही अनध्याय होता है। जलमें, आधी रातके समय, मल-मूत्रका त्याग करते समय, जूठा मुँह रहनेपर तथा श्राद्धका भोजन कर लेनेपर मनसे भी वेदका चिन्तन नहीं करना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण एकोद्दिष्ट श्राद्धका निमन्त्रण लेकर तीन दिनोंतक वेदोंका अध्ययन बंद रखे। राजाके यहाँ सूतक (जननाशौच ) हो या ग्रहणका सूतक लगा हो, तो भी तीन दिनोंतक वेद मन्त्रोंका उच्चारण न करे। एकोद्दिष्टमें सम्मिलित होनेवाले विद्वान् ब्राह्मणके शरीरमें जबतक श्राद्धके चन्दनकी सुगन्ध और लेप रहे, तबतक वह वेद मन्त्रका उच्चारण न करे। लेटकर, पैर फैलाकर, घुटने मोड़कर तथा शूद्रका श्राद्धात्र भोजन करके वेदाध्ययन न करे। कुहरा पड़नेपर, बाणका शब्द होनेपर, दोनों संध्याओंके समय, अमावास्या, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अष्टमीको भी वेदाध्ययन निषिद्ध है। वेदोंके उपाकर्मके पहले और उत्सर्गके बाद तीन राततक अनध्याय माना गया है। अष्टका तिथियोंको एक दिन-रात तथा ऋतुके अन्तकी रात्रियोंको रातभर अध्ययन निषिद्ध है। मार्गशीर्ष पौष और माघ मासके कृष्णपक्षमें जो अष्टमी तिथियाँ आती हैं, उन्हें विद्वान् पुरुषोंने तीन अष्टकाओंके नामसे कहा है। बहेड़ा, सेमल, महुआ, कचनार और कैथ-इन वृक्षोंकी छायामें कभी वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये। अपने सहपाठी अथवा साथ रहनेवाले ब्रह्मचारी या आचार्यकी
स्यात्तदुत्तरम् एव मन्त्रो महायोगः सारात् सार उदाहृतः ॥ वेदमातरम्। विज्ञायार्थं ब्रह्मचारी स याति परमां गतिम् ॥ लोकपावनी गायत्र्या न परं जप्यमेतद्विज्ञाय मुच्यते ॥ ( ५३ । ५६ – ५८ )