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स्वर्गखण्ड]
. ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म .
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प्रणाम नहीं करना चाहिये; अपितु 'मैं अमुक है, यह ब्राह्मणो ! विप्रको अध्ययनके आदि और अन्तमें भी कहकर पृथ्वीपर ही मस्तक टेकना चाहिये। सत्पुरुषोंके विधिपूर्वक प्रणवका जप करना चाहिये। प्रतिदिन पहले धर्मका निरन्तर स्मरण करनेवाले शिष्यको उचित है कि वेदको अञ्जलि देकर उसका अध्ययन कराना चाहिये। वह बाहरसे आनेपर प्रतिदिन गुरुपत्नीका चरण-स्पर्श एवं वेद सम्पूर्ण भूतोंके सनातन नेत्र है; अतः प्रतिदिन उनका प्रणाम करे। मौसी, मामी, सास, बुआ-ये सब अध्ययन करे अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। जो गुरुपत्नीके समान है। अतः गुरुपत्रीकी भाँति इनका भी नित्यप्रति ऋग्वेदका अध्ययन करता है, वह दूधकी आदर करना चाहिये। अपने बड़े भाइयोंकी सवर्ण आहुतिसे; जो यजुर्वेदका पाठ करता है, वह दहीसे; जो स्त्रियोंका प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना उचित है। परदेशसे सामवेदका अध्ययन करता है, वह घीकी आहुतियोंसे
आनेपर अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियोंकी सभी श्रेष्ठ तथा जो अथर्ववेदका पाठ करता है, वह सदा मधुसे स्त्रियोंके चरणोंमें मस्तक झुकाना चाहिये। बुआ, मौसी देवताओंको तृप्त करता है। उन देवताओंके समीप तथा बड़ी बहिनके साथ माताकी ही भाँति बर्ताव करना नियमपूर्वक नित्यकर्मका आश्रय ले वनमें जा एकाग्र चाहिये, इन सबकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है। चित्त हो गायत्रीका जप करे। प्रतिदिन अधिक
जो इस प्रकार सदाचारसे सम्पन्न, अपने मनको से-अधिक एक हजार, मध्यम स्थितिमें एक सौ अथवा वशमें रखनेवाला और दम्भहीन शिष्य हो, उसे प्रतिदिन कम-से-कम दस बार गायत्री देवीका जप करना चाहिये; वेद, धर्मशास्त्र और पुराणोंका अध्ययन कराना चाहिये। यह जपयज्ञ कहा गया है। भगवान्ने गायत्री और जब शिष्य सालभरतक गुरुकुलमें निवास कर ले और वेदोंको तराजूपर रखकर तोला था, एक ओर चारों वेद उस समयतक गुरु उसे ज्ञानका उपदेश न करे तो वह थे और एक ओर केवल गायत्री मन्त्र । दोनोंका पलड़ा अपने पास रहनेवाले शिष्यके सारे पापोंको हर लेता है। बराबर रहा। द्विजको चाहिये कि वह श्रद्धालु एवं आचार्यका पुत्र, सेवापरायण, ज्ञान देनेवाला, धर्मात्मा, एकाग्र चित्त होकर पहले ओङ्कारका और फिर पवित्र, शक्तिशाली, अन्न देनेवाला, पानी पिलानेवाला, व्याहृतियोंका उच्चारण करके गायत्रीका उच्चारण करे । पूर्व साधु पुरुष और अपना शिष्य-ये दस प्रकारके पुरुष कल्पमें 'भूः', 'भुवः' और 'स्व:'-ये तीन सनातन धर्मतः पढ़ानेके योग्य हैं।* कृतज्ञ, द्रोह न रखनेवाला, महाव्याहतियाँ उत्पन्न हुई, जो सब प्रकारके अमङ्गलका मेधावी, गुरु बनानेवाला, विश्वासपात्र और प्रिय-ये छः नाश करनेवाली हैं। ये तीनों व्याहृतियाँ क्रमशः प्रधान, प्रकारके द्विज विधिपूर्वक अध्ययन करानेके योग्य हैं। पुरुष और कालका, विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीका शिष्य आचमन करके संयमशील हो उत्तराभिमुख तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका प्रतीक मानी बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करे। गुरुके चरणोंमें प्रणाम गयी हैं। पहले 'ओं उसके बाद 'ब्रह्म' तथा उसके करके उनका मुँह जोहता रहे । जब गुरु कहें-'सौम्य ! पश्चात् गायत्रीमन्त्र-इन सबको मिलाकर यह महायोग आओ, पढ़ो,' तब उनके पास जाकर पाठ पढ़े और जब नामक मन्त्र बनता है, जो सारसे भी सार बताया गया वे कहें कि 'अब पाठ बंद करना चाहिये', तब पाठ बंद है। जो ब्रह्मचारी प्रतिदिन इस वेदमाता गायत्रीका अर्थ कर दे। अग्निके पूर्व आदि दिशाओंमें कुश बिछाकर समझकर जप करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। उनकी उपासना करे। तीन प्राणायामोंसे पवित्र होकर गायत्री वेदोंकी जननी है, गायत्री सम्पूर्ण संसारको पवित्र ब्रह्मचारी ॐकारके जपका अधिकारी होता है। करनेवाली है। गायत्रीसे बढ़कर दूसरा कोई जपने योग्य
* आचार्यपुत्रः शुश्रपुर्शानदो धार्मिकः शुचिः । शक्तोऽन्नदोऽम्युदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः ॥(५३ । ४०) * गायत्री चैव वेदांश तुलयातोलयत्प्रभुः । एकतश्चतुरो वेदा गायत्री च तथैकतः ॥(५३ । ५२)