________________
स्वर्गखण्ड]
• ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम .
३८१
ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान है; जो मूर्ख उसका रखते हुए शिष्ट पुरुषोंके घरोंसे भिक्षा ले आये तथा अपमान करता है, वह उस पापके कारण मृत्युके बाद गुरुको निवेदन कर दे। फिर गुरु उसमेसे जितना घोर नरकमें पड़ता है। सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले भोजनके लिये दें, उनकी आज्ञाके अनुसार उतना ही पुरुषको स्वामीका सदा सम्मान करना चाहिये। इस लेकर मौनभावसे भोजन करे। उपनयन-संस्कारसे युक्त संसारमें माताका अधिक उपकार है; इसलिये उसका श्रेष्ठ ब्राह्मण भवत' शब्दका पहले प्रयोग करके अर्थात् अधिक गौरव माना गया है। मामा, चाचा, श्वशुर, 'भवति भिक्षा मे देहि' कहकर भिक्षा मांगे। क्षत्रिय ऋत्विज और गुरुजनोंसे 'मैं अमुक हूँ' ऐसा कहकर ब्रह्मचारी वाक्यके बीचमें और वैश्य अन्तमें 'भवत्' बोले और खड़ा होकर उनका स्वागत करे । यज्ञमें दीक्षित शब्दका प्रयोग करे, अर्थात् क्षत्रिय 'भिक्षा भवति मे पुरुष यदि अवस्थामें अपनेसे छोटा हो, तो भी उसे नाम देहि' और वैश्य 'भिक्षा मे देहि भवति' कहे। ब्रह्मचारी लेकर नहीं बुलाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि सबसे पहले अपनी माता, बहिन अथवा मौसीसे भिक्षा वह उससे 'भोः !' और 'भवत्' (आप) आदि मांगे। अपने सजातीय लोगोंके घरोंमें ही भिक्षा मांगे कहकर बात करे। ब्राह्मण और क्षत्रिय आदिके द्वारा भी अथवा सभी वर्णकि घरसे भिक्षा ले आये। भिक्षाके वह सदा सादर नमस्कारके योग्य और पूजनीय है। उसे सम्बन्धमें दोनों ही प्रकारका विधान मिलता है। किन्तु मस्तक झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। क्षत्रिय आदि पतित आदिके घरसे भिक्षा लाना वर्जित है। जिनके यहाँ यदि ज्ञान, उत्तम कर्म एवं श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त होते हुए वेदाध्ययन और यज्ञोंकी परम्परा बंद नहीं है, जो अपने अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हों, तो भी ब्राह्मणके द्वारा कर्मके लिये सर्वत्र प्रशंसित है, उन्हींके घरोंसे जितेन्द्रिय नमस्कारके योग्य कदापि नहीं है। ब्राह्मण अन्य सभी ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षा ले आये। गुरुके कुलमें भिक्षा वोंके लोगोंसे स्वस्ति कहकर बोले-यह श्रुतिकी न माँगे। अपने कुटुम्ब, कुल और सम्बन्धियोंके यहाँ भी आज्ञा है। एक वर्णके पुरुषको अपने समान वर्णवालोंको भिक्षाके लिये न जाय। यदि दूसरे घर न मिले तो प्रणाम ही करना चाहिये । समस्त वर्णोके गुरु ब्राह्मण हैं, यथासम्भव ऊपर बताये हुए पूर्व-पूर्व गृहोंका परित्याग ब्राह्मणोंके गुरु अग्नि, हैं, स्त्रीका एकमात्र गुरु पति है और करके भिक्षा ले सकता है। यदि पूर्वकथनानुसार योग्य अतिथि सबका गुरु है। विद्या, कर्म, वय, भाई-बन्धु घर मिलना असम्भव हो जाय तो समूचे गाँवमें भिक्षाके और कुल-ये पाँच सम्मानके कारण बताये गये हैं। लिये विचरण करे। उस समय मनको काबूमें रखकर इनमें पिछलोकी अपेक्षा पहले उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।* मौन रहे और इधर-उधर दृष्टि न डाले। ब्राह्मणादि तीन वर्णोंमें जहाँ इन पाँचों से अधिक एवं इस प्रकार सरलभावसे आवश्यकतानुसार प्रबल गुण होते है, वही सम्मानके योग्य समझा जाता भिक्षाका संग्रह करके भोजन करे। सदा जितेन्द्रिय रहे। है। दसवीं (९० वर्षसे ऊपरकी) अवस्थाको प्राप्त हुआ मौन रहकर एवं एकाग्रचित्त हो व्रतका पालन करनेवाला शूद्र भी सम्मानके योग्य होता है। ब्राह्मण, स्त्री, राजा, ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षाके अन्नसे ही जीवन-निर्वाह करे, नेत्रहीन, वृद्ध, भारसे पीड़ित मनुष्य, रोगी तथा दुर्बलको एक स्थानका अन्न न खाय। भिक्षासे किया हुआ निर्वाह जानेके लिये मार्ग देना चाहिये। . ....ब्रह्मचारीके लिये उपवासके समान माना गया है।
ब्रह्मचारी प्रतिदिन मन और इन्द्रियोंको संयममें ब्रह्मचारी भोजनको सदा सम्मानकी दृष्टि से देखे। गर्वमें
* गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥
विद्या कर्म वयो बन्धुः कुलं भवति पचमम्। मान्यस्थानानि पश्चाहुः पूर्व पूर्व गुरूत्तरात् ॥(५१ । ५१-५२) + पन्धा देयो ब्राह्मणाय स्त्रियै राज्ञे विचक्षुषे । वृद्धाय भारभन्नाय रोगिणे दुर्वलाय च ॥(५१ । ५४)